सुभाषितरत्नसंदोह | Subhashitratnsandoh

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Subhashitratnsandoh by हीरालाल जैन - Heeralal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १३ 1 अमितगतिने भी १९ वें परिच्छेदमे पूजा विधिका और १५ कं ध्यानका वर्णन विस्तारसे किया है। कहीं- कहीं तो विषयके साथ शब्द साम्य भी है यथा-- देवतातिथिपिक्रथं मन्त्रौषधिभयाय वा। न हिस्यात्‌ प्राणिनः सर्वानहिसा नाम तद्व्रतम्‌ ॥।३२०॥ --उपा० देवतातिथि मन्त्रौषपित्रादिनिमित्ततोऽपि सम्पन्ना । हिसा धत्ते नरके कि पुनरिह नान्यथा विहिता ।॥ -रा° ६-२९ अत्तः अमितगतिके सन्मुख उपासक्राध्ययन अवद्य रहा है ऐसा प्रतीत होता है । रे. अमितगति और आज्ञाघर--अमितगतिके श्रावकाचार आदिने आशाधरके धर्मामृत ग्रन्थके अनगार और सागार दोनों भागोको अत्यधिक प्रभावित किया है। दोनोमे श्रावकाचार और पंचसंत्रहके उद्धरणोंकी बहुतायत है तथा आशाधरने स्वय उनका नामोल्लेख भी किया है यथा--अनगारधर्मामृतकी टीका (पृ० ६०५) मे लिखा है-- एतदेव चामित्तगतिरप्यन्वाख्यात्‌- कथिता द्रादशावर्ता वपुवं चन चेतसाम्‌ । स्तवं सामायिकाद्यन्तपरावत्तंनलक्षणाः ।\--श्रा० ८।६५ ४. अमितगति भौर पद्मनन्दि-आचायं पद्मनन्दीकी पञ्चविशतिकाके अनेक पद्य अमितगत्तिसे प्रमावित है, पञ्चविशततिकाका एक पद्य इस प्रकार है- मनोवचोऽङ्ख. कृतमद्जिपीडन प्रमोदित कारित यत्र तन्मया । प्रमादतो दपंत एतदाश्रय तदस्तु मिथ्या जिन दुष्कृत मम † अमितगतिकी भावना द्वात्रिशत्तिकाके निम्न पद्यांश इस प्रकार है- “एकेन्द्रियाद्या यदि देव देहिनः प्रमादतः संचरता इतस्तत्त > >€ > मनो वच कायकषायनि्मितम्‌ । > > भ तदस्तु मिथ्या मम दुष्कृतं प्रभो । अन्य भी अनेक समानताएँ हैं । ५. अमितगति और प्रभाचन्द्--आचायें प्रभाचन्द्रने अपना प्रमेय कमल मातंण्ड मुजके उत्तराधिकारो - राजा भोजके राज्यकालमे बनाया है । उन्होंने पुज्यपादकी तत्त्वाथ॑वृत्तिके विषम पदोंपर भी एक टिप्पण लिखा है जो भारतीय ज्ञानपीठसे प्रकाशित सर्वाथंसिद्धिके द्वितीय सस्करणके साथ प्रकाशित हो चुका है। उसके प्रारम्ममे अमिततगत्िके पंचसग्रहका निम्न पद्य उद्धुत है-- वग शक्तिसमूहोऽणोरणूना व्गणोदिता । वगंणाना समूहस्तु स्पघंकं स्पधंकापरैः ॥ ६. अमितमति बौर हेमचन्द्र-जाचायं हेमचनद्रका स्वगेवास सम्वत्‌ १२२९ में हुमा था । उन्होंने कृमारपालके अनुरोधसे योगशास्त्र रचा था । इसमे जिस प्रकार शुभचन्दरके ज्ञानार्णवका अत्यधिक अनुकरण है उस प्रकार अमितगतिका अनुकरण तो नहीं है। फिर भी उनके सु० र० सं० तथा श्रावकाचारका प्रभाव




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