भक्तियोग पर प्रवचन | Bhaktiyog Par Pravachan

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Bhaktiyog Par Pravachan  by

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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९ भक्तियोग पर प्रवचन करो, अपने मन में किसी भौतिक या मानसिक सुख-मोग का विचार मत कायौ केवल परमात्मा की ही ओर अपने मन को लगाओ। जब मन किसी अन्य वात का विचार करने लगे, तो ऐसे ज़ोर से घूंसा जमाओ कि मन वहाँ से छौट पडे और ईदवर-चिन्तन मे प्रवत्त हो जाय। “जैसे तैल एक पात्र से दूसरे पात्र मे डालते समय अविच्छिन्न घारामे गिरतारहै, जसे दुर से आता घण्टा-नाद कानौ मे एक अखड ध्वनि के रूप मे आता है, उसी प्रकार मन भी एक अविच्छिन्न, धारा-प्रवाह- वत्त्‌ ईश्वर की ओर निरन्तरं प्रवाहित रहे ।' हमे यह जम्यास केवर मनसे ही नही कराना चाहिए, वरन्‌ अपनी इन्दियो को मी इस अभ्यास मे लगाना चाहिए। व्यथै की बकवाद न सुनकर हमे केवल ईर्वर की चर्चा सुननी चाहिए । निरर्थक वाते न करके ईश्वर की ही चर्चा करनी चाहिए। मूखंतापूर्ण किताबें न पढठकर हमे केवल ऐसे सदुग्रन्यो का पाठ करना चाहिए, जिनमे ईश्वर-सम्बन्घी विषयो का विवेचन हो । ईश-स्मरण का यह अस्यास बनाये रखने मे सवसे वडा सहायक सम्मवत सगीत है! मवति के महान्‌ माचायं नारद से मगवान्‌ कहते र--हि नारद, नर्म बैकुण्ठ मे रहता हूँ, न योगियो के हृदयो मे ही। मैं तो वही रहता हूँ, जहाँ मेरे भक्तगण गान करते हैं।” मनव-हदय पर सगीत का प्रबल प्रभाव पडता है, वह क्षण भर मे चित्त को एकाग्र कर देता है। तुम देखोगे कि जड, अज्ञान), नीच और पशथु-वृत्तिवाले मनुष्य जो अपने मन को क्षण भर के किए भी स्थिर नही कर सकते, वे भी मनोहर सगीत का श्रवण करते ही तत्क्षण मुग्ध होकर एकाग्र हौ जाते हैं। सिंह, कुत्ते, बिल्ली, सप॑ आदि पशुओ का भी मन सगीत द्वारा मोहित हौ जाता है। तत्पर्चात्‌ क्रिया दूसरो की मलाई करना, है । ईङवर का स्मरण स्वार्थी मनुष्य नदी कर पाता। हम जितना ही जपने से बाहर दुष्ट डालेंगे, जितना ही दूसरो का उपकार करेंगे, उतना ही हमारे हृदय की शुद्धि होगी और उसमे परमात्मा का निवास होगा। हमारे दास्त्रो के अनुसार कर्म पाँच प्रकार के होते हैं, जिन्हें पच महायज्ञ कहते हैं । प्रथम है “स्वाध्याय । मनुष्य को प्रतिदिन कुछ पवित्र मोर कल्याणकारी अध्ययन करना चाहिए । दूसरा है देवयज्ञ--ईवर, देवता या साषु-सन्तो की उपासना । तीसरा है पितुयज्ञ--अपने पितरो के प्रति कर्तव्य । चौथा है मनुष्ययज्ञ , अर्थात्‌ मानव जाति के प्रति हमारा कतव्य ¡ जव तक दीन १ नाह वसामि वैकुण्ठे योगिना हृदये रवौ 1 मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद 11




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