प्रभु-भक्ति | Prabhu Bhakti

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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५ ~ ~~~ ^~ ~~~ ^~ ५ ~~ «~ ^ ~~~ ^~ =^ = कि वह्‌ परमात्मा से प्रेम करता हैं ।” जब हम कहते हैं कि परमात्मा का ज्ञान हमें दै तो इसका क्रेवल इतना दी श्भिष्नाय होता दै कि हम उसे इतना जानते है, जो हमारे कल्याण के लिये श्यावश्यक है। उसे ठीक-दीक जान लेना मनुष्य की शक्ति से वाहर है। एक उर्दू के कढ़ि ने लिखा 2 श्रौर वहुत श्च्छा लिखा है -- - क्या तुरा टै षूवी मेरे महसूव कौ देखो । दित्तरमेतो वद श्चातादै, खम मे नहीं श्राता ॥ हमें क्यों उसे जानने श्रथवा उससे प्रेष करने की जरूरत है ? इस प्रश्न के उत्तर के लिए निम्न पक्तियो विचारणीय ह-- ससार में शान्ति, मलुर्प्यो में भ्राठ-भाव, विला लिद्ाजः रग, नस्ल श्र देश के समस्त देशवासियों को प्रेम के एक उत्कृष्ट सूत्र में बाँघे रखने का कारण श्ौर एकमात्र कारण, वास्तविक श्मास्तिकता है । वेद मँ इस वात को श्रसन्दिगव शब्दों में कहा गया है. कि “इस पथिवी पर वसने वाले समस मल्लुप्यों का एक - विशाल, परिवार है, जिनमें न कोद छटा है न कोर बडा, ्रपितु सब भाई हैं, उन सबका पिता ईश्वर शरोर उन सवकी माता प्रथिवी है °?» वेद प्रर्पादित, इम सातरेत्रिक श्राद्रमान का श्रतुभव, मलुप्य उसी समय कर सकला है, जव फहले हैश्छर के सावत्रिक पितृभाव का विश्वास उसे दो जाय । इसी विश्वास के पहले छा जाने की ज़रूरत है। ईश्वर के प्रेम का प्रारम्भिक खूप वह होता है, जब मलुप्य के हृदय में ईश्वर-विश्वास का खून्रपात हुआ करता है। यह विश्वास वढते-वढ़ते निश्नयात्मक ज्ञान का रूप.घारण कर लेता है और तभी प्रेम का उत्कृष्ट रूप, प्रादभ त होता है । उस मे प्रेमी प्रियत्तम के प्रेम में मम्न दोकर अपनी सुषवुष भुला देता दै! यदी प्रेम की उत्कृष्ट झवस्था मक्ति है । भक्ति की भावना में भक्त केवल मे म केवल 4 खगा द्द एपां सुदुधा प्रप्ति सुदिना मरुदूभ्व 1




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