मित्रसंप्राप्तिः | Mitrasanprapti

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Mitrasanprapti by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ १४ 1 च्यावृत्तच्विन-आननबूतुफ्त (व) । लिटयतामून्ल'सिंए धातु, बर्मवाच्य, सोट्‌, प्रण पु०, एव! संश्यपिषुमू=मम्‌+-निजन्न हश्‌ (दर्‌) + द्द्‌ (ह) + तुमुन (म्‌) । दाष्दार्पः--ङयेन्= योना । तप्ययखनय्‌ = स्य वान । {तहुनादः = पोप ॥ ध्यंलिप्यु ==थन षा सालची । थ्याश्तवेद्धिया्स्वन्=समी इ्दियों वे दिपयों से विरत । हि धनु°ः- तव विष्णुशर्मा उस राजा ते वोता--“राजन्‌, मेरी घण्चौ मात सुनिए । मैं सो ग्रामों वे राज्य से विद्या घी बिप्ो नहीं कर सकता हें । फिर मी सुम्हारे इन पुत्रों को यदि मैं. द महीने में नोतिशास्थवेत्ता न बना दूं, सो अपने नाम का त्याग वर दूंगा (अपना माम बदल द्मा) ) मधिक षया । मेरी यह धोपणा सुनिए । मैं धन वा लालची होवर यह महीं बहता हूँ । सभी इग्दियो वें विपयों से विरत मुझ अस्सी थं वाले व्यक्ति को घनसे षौ प्रयोजन मही है। विन्तु तुम्हारी प्रार्थना की सिद्धि के लिए मैं (इसी रूप में) विधा वा विनोद करूंगा । सो आज वा दिन लिख सीजिए 1 यदि मैं छः महीने के भीतर तुम्हारे पुत्रों को नीतिशास्त में अद्वितीय (विद्वान्‌) न बना हु, तो मगवान्‌ मुभे देवमामे न दिलावे मातु मुभे सद्गति प्रदानं न करं । अथासौ राजा ता ब्राह्यणस्यप्नमाग्यां प्रतिज्ञ श्रत्वा ससचिवः प्रहुष्टो विस्मयाम्वितस्तस्म सादर तान्‌ कुमारान्‌ समप्यं परा निनब्रु तिमाजगाम । विष्णुः शरमेणावि तानादाय तदयं मित्रभेद मिवशास्ति-काकोनूकौय-सन्वप्रणाश-अपरीदित कारकाणि येति पञ्च तन्त्राणि रपित्वा पाठिास्ति राजपुत्राः । तेऽपि तान्यधीत्य भासपट्मैन पयोक्ताः सवृत्ता. । ततः प्रमूत्येतत्पञ्चतेन््रक नाम नीतिशास्त्र दालाववीधना्ं' मूतले प्रवृत्तमू । समास बालावयोधनायग्‌ = दालानाम्‌ अवबोधनम्‌ तस्में इदम्‌ (तत्पुल) । ब्या०:--श्रुत्वान्श्रू,ज-वत्वा (त्वा) समप्य॑समून मप्‌. {वत्वा (ल्यप्‌ न्य) 1 माजयामन्तवा' पूर्वक गम” घातु, लिट, प्र० पु० एकब० { माद्य भादा -[-वस्वा (ल्यप्‌ य) । रचयित्वा =रच्‌+-णिच्‌ (इ) + इद्‌ (६) ¬- वत्वा (त्वा) । पाठितता == णिजन्त पट्‌* (पाटि) {इट्‌ (इ) {क्त (त), णिच्‌ की 'इ' का सोप । झधीत्पन्>मधिन-इड, (द) ~-तुक्‌ (त्‌) -1बप्वा (स्यप्‌न=य) ॥




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