तीर्थकर वर्द्धमान | Tirthkar Varddhmaan
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm, धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
509
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about श्रीचंद रामपुरिया - Shreechand Rampuriya
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[न
है। (पृष्ठ १५६ )
क्रोध, मान, माया और लोमबे मनुप्य किसि प्रकार उत्तरोत्तर
नीचं पिग्ता जाता हूं, इस सम्बस्चमे महावीरकी ब्यार्या देखिये :
अह्दे वयट्ट कोहेणं; माणेंण॑ अहमा गई।
मायागईपड़िग्वाओ; छोभाओ दुहो भय॑॥
-- कोधे मनुष्य नीचे भिरता हं, मानसे अधोगति पादा, माया
से सद्ग्तिषेय रास्ता सक्ता हं मौर लाभसे इहमव भर परमव दानों
विगडवे हं । (पृष्ठ १७६}
आाजके यगकी सबसे बड़ी बुराई यह हैं कि अधिकाश लोग स्पष्ट
भाषाका प्रयोग नड्ी करते । बसप्य भापण भी प्राय. कर जाते हुं ।
भगवान् महायी रकी भाषाकें बिपयमें सावधानता देखिये :
सत्थिमा तद्या भासा, जं वडचाऽ्णुतप्प ।
जं छन्नं तं न वत्तव्वं, एसा आणा नियण्ठिया ॥
भाषा चार प्रवारकों होती हैं । उनमें झूठ्से मिली हुई भाषा
नौसरी हूँ । विवेक्षी पुरुप ऐसी मिथ भाषा न बाले । न वैसी भाप!
वाले, जिससे ऋदमे पड्चाताप बरना प्रडे। न प्रच्छन्न वात कहें । यही
निर्य ऋषियोकौ भानां हुं । (पृष्ठ १७९ }
जीवनकी क्षणभयुरताके विषय में :
जहेदद सीहो व. मियंगद्दाय; मच्चू नर नेइ हु अंतकाठे ।
न तस्स माया च पिया च माया; कालम्मि तम्मिसहरा भवंति ॥
-निदचय ही अतकालमें मृत्यु मनुष्यको बसे ही पकड़ कर
जाती हू, जे सिंह मुगको । भ्रन्तकालके समय मातानपिता या भा
वन्धु कोई उसके मागीदार नहीं होते । ( पृष्ठ १८७ )
भोगोकी निस्सारताके दारेमें उन्होंने बितने सुन्दर दगसे अपनी
ने
ई
User Reviews
No Reviews | Add Yours...