तीर्थकर वर्द्धमान | Tirthkar Varddhmaan

Tirthkar Varddhmaan  by श्रीचंद रामपुरिया - Shreechand Rampuriya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[न है। (पृष्ठ १५६ ) क्रोध, मान, माया और लोमबे मनुप्य किसि प्रकार उत्तरोत्तर नीचं पिग्ता जाता हूं, इस सम्बस्चमे महावीरकी ब्यार्या देखिये : अह्दे वयट्ट कोहेणं; माणेंण॑ अहमा गई। मायागईपड़िग्वाओ; छोभाओ दुहो भय॑॥ -- कोधे मनुष्य नीचे भिरता हं, मानसे अधोगति पादा, माया से सद्ग्तिषेय रास्ता सक्ता हं मौर लाभसे इहमव भर परमव दानों विगडवे हं । (पृष्ठ १७६} आाजके यगकी सबसे बड़ी बुराई यह हैं कि अधिकाश लोग स्पष्ट भाषाका प्रयोग नड्ी करते । बसप्य भापण भी प्राय. कर जाते हुं । भगवान्‌ महायी रकी भाषाकें बिपयमें सावधानता देखिये : सत्थिमा तद्या भासा, जं वडचाऽ्णुतप्प । जं छन्नं तं न वत्तव्वं, एसा आणा नियण्ठिया ॥ भाषा चार प्रवारकों होती हैं । उनमें झूठ्से मिली हुई भाषा नौसरी हूँ । विवेक्षी पुरुप ऐसी मिथ भाषा न बाले । न वैसी भाप! वाले, जिससे ऋदमे पड्चाताप बरना प्रडे। न प्रच्छन्न वात कहें । यही निर्य ऋषियोकौ भानां हुं । (पृष्ठ १७९ } जीवनकी क्षणभयुरताके विषय में : जहेदद सीहो व. मियंगद्दाय; मच्चू नर नेइ हु अंतकाठे । न तस्स माया च पिया च माया; कालम्मि तम्मिसहरा भवंति ॥ -निदचय ही अतकालमें मृत्यु मनुष्यको बसे ही पकड़ कर जाती हू, जे सिंह मुगको । भ्रन्तकालके समय मातानपिता या भा वन्धु कोई उसके मागीदार नहीं होते । ( पृष्ठ १८७ ) भोगोकी निस्सारताके दारेमें उन्होंने बितने सुन्दर दगसे अपनी ने ई




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