हिन्दी काव्याधारा में प्रेम प्रवाह | Hindi Kavya Dhara Me Prem Pravah
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
304
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रेम-परिचय ७
दासत्व अथवा ग्लानि के मनोविकार प्रदर्शित करने लगता हैं। इस कारण
इन दोनों ही ददयाओं में प्रेम का स्वाभाविव रग कुछ न कुछ फीफा पड जाता
है गौर वह कुछ मद-सा बन जाता हैं 1
कठा गया ह करि सृष्टि कै पटे परमात्मा अपनौ अद्रयता करे कारण,
आत्म प्रेम में हो लोन था, विन्तु उस प्रेम को वाह्य रूप में भी अनुभव बरे
की इच्छा से उसने “असत्' से 'सतू' उत्पन निया और अपने प्रतीष के सूप
में मनुप्य की भी सृप्टि की । इस प्रदार प्रेंम की अभिव्यक्ति के ही कारण
'उसकी अद्यता भग हुई और इसीसे उसे मृष्टि-निर्माण की प्रेरणा भी मिली ४
विद्व मे जा कुछ जौ नियम एव सुच्यवस्यः का परिणाम दौल परता ह
चह मूर्तःप्रेमके ही कारणः ह । साद वे जितने नी नक्षत्र-मडल हू
वे सभी इस प्रेम वे ही जिसी अपूबवे आवर्पण दरा वद्ध और संचालित हें,
यौर मूर एव चन्द्रमा भी उसी नियम के पालन में लगे हुए हूं। दुक्ष अपनी
जड़ी द्वारा पृथ्वी से चिपके हुए है, अमर कमछ के चतुदिव मडराता रता
है, मगौ पानी का परित्याग नटी कर पातौ नौरस्प्री एव पष्प रौ जडी
एक दूसरे वे प्रति आपसे आप मनुरकत हा जाती हूँ ।* वह परमात्मा मानों
सभी की अनुप्राणित करता रहता हूं मौर बढ़ी हमारे श्रोत्र वा श्रोब है, मन
का मन हैँ, वाणी वा वाणी हूं और प्राण वा प्राण भो है ।' आत्मतत्व
वे रूप में वही हमारे मत्तरतम में जदस्यित हैं और हमारे लिए वह पुथ, ,
'घन, आदि सभी चस्तुआ थे प्रियतर भी हैं 1” अपएव, प्रेम, बस्तुत, परमात्मा
के सारतत्त्व वा भी सारतत्त्व हूं जेंस वि प्रसिद्ध सूफी हस्लाज ने बनाया है ॥
रमे कभो-वमी सहन सो कहरानें को साथंवता इसी बात में हैं वि मह्.
* निशोलसनः स्टडीस इन इस्लामिर मिस्टोसिडम' पुर ८०
* “ज्ञान सागर (साहित्य पश्पिद प्रयावत्ती, सं ५९) पु० य४-द -
१ श्वेनोपनिपत्' {१-२)
* वुह््ारष्यस्तेपह्तयन् {१-४८-८१
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