विद्यापति पदावली [भाग 1] | Vidhyapati Padawali [Bhag 1]
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12 MB
कुल पष्ठ :
548
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( १३. )
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उक्त पंक्तियों में प्रथम पंक्ति का पाठ तो ठीक है, केवल झर्थ में झशुद्धि है; किन्तु
-दूसरी पक्ति का ही पाठ अशुद्ध है । इसी से अर्थ में भी अशुद्धि हो गई है | शुद्ध पाठ इस
प्रकार है--
दाहिन पवन बह से कैसे जुबति सद
करे कवलित तलु ङ्ग ।
गेल परान शरास दप राखए
दस नखे चिप सुखक्ग ॥
परिपदू-पदावली, पद-म॑० २६५
झर्थ--दक्षिण वायु वह रही दै। युवती कैसे उसका सहन कर सकती है ९ बह
वायु उसके छंग की आस वना री है}
(विरहिणी) गये हुए प्राण को आशा देकर रख रही है और दस नखों से सर्प
लिखती है । (श्रर्थात्, सर्प दक्षिण पवन को पी लेगा. तो उसके प्राण वच जायेगे ।)
नेपाल-पदावली की पार्डुलिपि में कुछ अच्चुर ऐसे झस्पप्ट हो गये हैं, जो अव्दक पढ़े
नहीं जा सके थे | बहुत परिश्रम के साथ अधिकाश ऐसे स्थलों का पाठोद्धार परिषद्-
पदावली मे किया गया है । उदाहरणु-स्वरूप निम्नलिखित पद पर दृकपात कीलिए--
लरेम्ट्रनाथ गुप्त का पाठ--
तोहे कुल मति रति छुलमति नारि 1
के दुरशने चुल्ल सुरारि ॥
उचित चोदते अवे अवधान ।
ससय मेललहु तन्दिक परान ॥
सुन्दुरि कि कइब कहते लान ।
मोर भल्ला से परह सनो याने ॥
थावर द्म मनदहि अञ्ुमान ।
सवहिक विषय तोहर दश्च भान ॥
पद् 9०३
मित्र-मजूमदार का पाठ--
लोहे इल मपि रति इकमति नारि )
बाधं दरखने युलल सुरार 11
उचितहु बोलइत श्वे श्रवधान ।
संसय मेलतह तन्हिक परान ॥
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