विद्यापति पदावली [भाग 1] | Vidhyapati Padawali [Bhag 1]

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Vidhyapati Padawali [Bhag 1]  by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १३. ) पुपा७ पाठ, फक 18 दिछछपए 8०४७, थप6 एक#18. ण्ण फि6 8 04 10708 5 [ ५४ 86७08 ४8 1 ] 806 18 एभ्काणट् पा 0 ६७6 म & 8०४९ पा, उक्त पंक्तियों में प्रथम पंक्ति का पाठ तो ठीक है, केवल झर्थ में झशुद्धि है; किन्तु -दूसरी पक्ति का ही पाठ अशुद्ध है । इसी से अर्थ में भी अशुद्धि हो गई है | शुद्ध पाठ इस प्रकार है-- दाहिन पवन बह से कैसे जुबति सद करे कवलित तलु ङ्ग । गेल परान शरास दप राखए दस नखे चिप सुखक्ग ॥ परिपदू-पदावली, पद-म॑० २६५ झर्थ--दक्षिण वायु वह रही दै। युवती कैसे उसका सहन कर सकती है ९ बह वायु उसके छंग की आस वना री है} (विरहिणी) गये हुए प्राण को आशा देकर रख रही है और दस नखों से सर्प लिखती है । (श्रर्थात्‌, सर्प दक्षिण पवन को पी लेगा. तो उसके प्राण वच जायेगे ।) नेपाल-पदावली की पार्डुलिपि में कुछ अच्चुर ऐसे झस्पप्ट हो गये हैं, जो अव्दक पढ़े नहीं जा सके थे | बहुत परिश्रम के साथ अधिकाश ऐसे स्थलों का पाठोद्धार परिषद्‌- पदावली मे किया गया है । उदाहरणु-स्वरूप निम्नलिखित पद पर दृकपात कीलिए-- लरेम्ट्रनाथ गुप्त का पाठ-- तोहे कुल मति रति छुलमति नारि 1 के दुरशने चुल्ल सुरारि ॥ उचित चोदते अवे अवधान । ससय मेललहु तन्दिक परान ॥ सुन्दुरि कि कइब कहते लान । मोर भल्ला से परह सनो याने ॥ थावर द्म मनदहि अञ्ुमान । सवहिक विषय तोहर दश्च भान ॥ पद्‌ 9०३ मित्र-मजूमदार का पाठ-- लोहे इल मपि रति इकमति नारि ) बाधं दरखने युलल सुरार 11 उचितहु बोलइत श्वे श्रवधान । संसय मेलतह तन्हिक परान ॥




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