पावन - प्रवाह | Pavan - Pravah

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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1 ११, इधर-उधर व्यथं भटकना छोडकर साथेक नास चाल्ञ इम ज्ञान रूपी सूय॑ को धीरे-धीरे जैसे बने वैसे प्राप्त करना चाहिए क्याकि यदह ज्ञान-सुय॑ पाप-विनाशक और अज्ञेय सामश्य वाला है । | ं यो ज्ञानसंचयमपास्य जनिं स्वकीयां, - व्यथं हि यापयति, तस्य न म॑गलानि। प्रादुर्भवन्ति विभवाः न च संपदोऽपि, काशचियतस्ततं उपास्यमिदं स्वसारः ॥&॥ जो मनुष्य जान को उपाजेन न करर अपन जीवन्‌ का व्यथं गवाना हं । उसके कभी अच्छे दिन नहीं आते - उस कोड्‌ वभव ओर सम्पत्ति नहीं मिलती । सार यह है कि जान के विना किमी भी उत्तम वस्तु की प्राप्ति नहीं होती । इस लिये अपने जीवन की सार-भूत इस दिव्य ज्योति को प्राप्त करन के लिए निगन्तर्‌ प्रयत्न करना चाहिए । | बिपत्ति-पद्धिः श्रलयं प्रयाति, यत्र स्थिते शीतल्तवारिणीव ।' ` उदेति सद्धाम्ब-तर्मंदिष्ठः,' ˆ ` ˆ ` स॒ ज्ञानपाथोधिरूपासनीयः ॥१०॥ ` जिस प्रकार जल के पास श्रग्नि नहीं रह 'सकती उसी प्रकार विवेक-ज्योति ॐ उदित हो जाने पर विपत्तियों का रहना ५




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