महाबन्ध [प्रथम भाग] | Mahabandh [Pratham Bhag]

Mahabandh [Pratham Bhag] by सुमेरचन्द्र दिवाकर - Sumeruchandra Divakar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्राक्षयन २३ किया, तब नवीन रूपसे टोका निर्माण करना हौ उचित जेवा । महावघकी टोकाको मुख्य कार्यं समञ्च हम उसमें सलग्त हो गये । लगभग तीन वर्पमे यह कार्य बन पाया । बना या. नही यह हम नहीं कह सकते ध हमारा भाव यह ह ङि इसमे पूर्तत समय उगा । इस मनुवादमें विद्येपार्थ, टिप्पणी, बुद्ध पाठ योजना आदि भी कार्य हुए । इस अपेक्षासे यह टीका पूर्णतया नवीन समझना चाहिए । सन्‌ १९४५ के ग्रोष्मावकाशमें न्यायालकार सिद्धान्त महोदधि गुरुपर प० वल्योघरजी शास्त्री महरोनी- वालोने पवनो पध।रकर अनुबरादको ध्यानपूर्वक देखा । उनके सशोघनके उपलक्षमे हम हृदयसे कृनज्ञ हैं । यह उनको हीषा ह, जो यह महान्‌ कार्य हम जैसे व्यक्तिसे सपन्न हो गया । प० हीरालालजी शास्त्री सादूमलने अनेक बहुमूल्य परामर्श तथा सुझाव प्रदान किये थे । प० फूचचद्र- जो शास्थ्रीने सिवनी पधारकर अनेक महस्वास्पद बातें सुझायो थी । इसके लिए हम दोनो विद्वानोके अतु- गुद्दीत हूं । बन्य सहायकोंके भी हम मारी हैं । हुमें स्त्रप्नमें इस बातका भान न था, कि महावध्रकी प्रति मूडविद्रोसे प्राप्त करतेका परम सोभाग्य हमें मिलेगा, भर उसकी टोका करनेका भो अमूत्य अवसर आयेगा । जैन धर्मके प्रसादसे भौर चारि चक्रवर्ती प्रात स्मरणीय पूज्य आचार्य १०८ श्री शातिसागर महाराजके पत्रित्न आशोर्वादिसि यह मगलमय कार्य सपनन हमा । प्रमाद अथवा अज्ञानवण टीकामें जो भूलें हुई हो, उन्हें विशेषज्ञ विद्वानु क्षमा करेंगे और संशोधनार्थ हमें सूचित करनेको कृपा करेंगे, ऐमी आशा है। ऐसे महान्‌ कार्यों भूलें होना असभव नही है । 'को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्रे ।' पौष ० ९१, चीर सवत्‌ २४५३ १८ दिसम्बर, १९४६ सिवनी --सुरेस्य 7 दिवाकर ( सो० पी० ) द्वितीय संस्करण यह परम आनदको बात है कि महावध सदृश दुरूह ओर गभोर ग्रथके प्रथम ख़डका प्रथम सस्करण समाप्त हो जानेसे उसके पुन मुद्रणका मंगल प्रसंग प्राप्त हुमा । हमने महावधका सुदेपतापते पुन ॒पर्यारोचन करके भूमिका, अनुवाद आदिन मत्यधिक आवश्यक तथा उपयोगी परिपर्तन गौर परिवधंन किये है। इस ग्रथकी कोई पूर्वमे टोका नहीं थो, अत १७ वर्षके शास्त्राश्यासके फलस्त्ररूप अनेक वाते परिवर्तन तथा प्शोधन योग्य लगीं । सहारनपुरके श्रुतप्रेमी बधु श्री नेमोचदजी एडवोकेट तथा ब्र० रतनचदजी मुख्वारने अनेक महत्त्वपूर्ण सशोधनोक! सुझाव दिया । मूडबिद्रो जाकर पुन प्रतिलिपि मिछानेके कार्यों हमारे अनुज अभिनदनकुमार दिवाकर एम० ए०, एल एल० बो० एडवोकेटने महत्त्वपूर्ण योग दिया था । हमारे भाई श्रेयासकुमार दिवाकर वी ० एस० सी० से भी उपयोगी सहायता मिलो । माई शातिलाल दिवाकरके ज्येष्ठ चिरजीव ज्रपभकुमारने लेखन कार्यमें पर्याप्त श्रम उठाया है । भारतीय ज्ञानपीठने इस ग्रथके पुन मुद्रणका सार उठाया । इन सबके प्रति हम अत्यत गाभारी है । चारि चक्रवर्ती क्षपक शिरोमणि १०८ आचार्य शातिसागर महाराजकी इच्छानुसार सपूर्ण महावघकी ताश्रवशोय प्रतिके लिए पूर्ण ग्रथ सशोधन, सपादन तथा मद्रणका महान्‌ कार्य करनेका पित्र सोमाग्य मिला था, ही ला मनुभव्ते इस टोकाके कार्यमें विशेष छाभ पहुँचा । सन्‌ १९५५ मँ उन क्रपि राजे सिद्धक्षेत् 22552: भाव्य तथा पुष्पदत-भूतब्ति मुनीद्रोके चर्‌णो- कौ शतश वदन है, जिनके कारण इष हदशा वाणौके भगरूप अगयक्रा सरक्षण हुमा । जय सुयदैवदा ।' २० दिसम्बर, १६६४ दवाकर सदन, मिवनी मध्यप्रदेश क




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