अत्रपूर्णाका मन्दिर | Atrapurnaka Mandir

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Atrapurnaka Mandir  by इश्वरीप्रसाद शर्मा - Ishwari Prasad Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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किन णोति मिक दूसरा परिच्छद्‌ । 0... अमी अभी सबेरा हुआ है । अपनी टूटी राम्मडियाके दरवाजे- पर चैठे हए अकाखवृद्ध रम्षंकरमद्चचार्यं तम्बाकू पी रहे हैं । निकट ही छतकी कड़ी ख्टकते इए पींजरेमसे तुरतकी जगी इद मैना बरवार “ राम | राम] ' हरे कृष्ण ! हरे कृष्ण !” इयादि नाम छे रही है ओर भद्धचार्यजीके खौँसनेकी नकर कर रही है । पुराने छये हुए रसोईघरके पस राख-पातकी ेरीपर सोया हुआ कुत्ता नाक बजा रहा है । ऑँगनके बीचोंबीच आमके पेड ते खैँटेसे बैँधी हुई गाय अपने बछड़ेकी देह चाट रही है। चरो ओर शान्ति फैरी हुई है। हवा भी घीरे धीरे चलकर ऑँगनके एक कोनेमें खड़े हुए केरेकि पत्तोको हिखा रदी है; लेकिन ऐसे आहिस्तेसे हिलाती है कि झाड़ एकदम कौंप नहीं उठते । भट्ाचायजी अपने मनमें यही सोच रे हैं कि सभी निश्चित और स्थिर हैं। केवल मनुष्यका ही चित्त इतना उद्वि्र, ऐसा चश्चल क्यों है? पक्षी आनन्दसे पढ़ता है, नकल करता है। गाय बच्चेपर प्यार करती है। कुत्ता बे-खबर पड़ा सो रहा है । इनके मनमें चिन्ताका ेश नहीं है। ये भी तो खाते पीते है; पर अपने पेटके ठिए इन्हें जान नहीं लड़ानी पड़ती । ये शायद इसी छिए बेफिक्र रहते हैं कि आदमी तो इनके ठिए चिन्ता करता ही है। इसी तरह यदि आदमीके छिए भी कोई और फिक्र करनेवाला होता तो कैसा अच्छा होता ? मनुष्यको ही क्यों अपने पेटके ठिए आप चिन्ता करनी पडती है ओर संसार चलाना पड़ता है ? प्रथ्वी ऐसी पक्षपात-भरी क्यों है ? जिसके होनेसे उसका गौरव है उसी मनुष्य जातिपर उसकी इतनी कम करुणा कयो है ?




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