कविता-कौमुदी | Kavita-Kaumudi

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Kavita-Kaumudi by रामनरेश त्रिपाठी - Ramnaresh Tripathi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १३ ) संसार के पदार्धो' ओर घटनाओं को सभी ठेखते हैं. परन्तु जिन धों से उन्हं कथि देखता है वे निरालोी हो होती हैं । गँघार के लिये पड के भीतर से आती हुई नदी एक नदी मार है ; कवि के लिये उस शवेतवक्नां शोभायुकत साजवती का नाचता दुआ शरोर श्उंगार की रंगभूमि है । आंख बहो, पर चितबन में भेद है । बिद्दारी ने यहता सच कहा है- छअनियारे कीरध नयन कछकिती न तरुनि समान | वह चितवन कलु ओर है जिहि बस हात सुजान ॥ किन्तु बिहारी ने इस रसलीले दोषे मे केवल बाहरी गंज ही के रस का चणन किया--झऔर वह मी श्रधूरा । वास्तव में वश करने वाली झाँखों में इतना भेद नहीं होता, जितना वश होने वाली अाँखों में । होरे को परख जौहरोा की रखे करती हैं, कुब्ज्ञा के सोन्द्य्य की पह्चिचान रस प्रवीण कृष्ण दीकादोती है; पदाथ रूपी चित्रों में चितरे के हाथ की महिमा कवि को ही आँखे” पिचानती दें, प्राकृतिक दैवी खकीत उसी के कान सुनते हें । विज्ञानवत्सा पदार्थो' के बाहरी झंगो की छानबीन करता है, झर उनके झवयवों का सम्बन्ध ढूढ़ता है, नीतिश उनसे मचुष्य समाज के लिये परिणाम निकालता है ; किन्तु उनके आंतरिक सोन्दयं कीश्ोर कवि डी का लक्ष्य रहता है । वैज्ञानिक और नीतिश भी जैसे जैसे अपने लदय की खोज में गदर डूबते हें, वैसे वैसे कवि के खमी प पहुंचते जाते हैं । सभी विद्याउ्ों झोर शास्त्री का झन्त और उनकी सफलता कथिता में लोन हाने हीमे हे ।कवि के सम्बन्ध मं कषा हे :- जानातत यन्न चन्द्रा जानन्त यन्न खे।गिनः। अगनीत्त यन्न -गौपि तज्जानालि कविः स्वयम्‌ ॥




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