विशाखा | Vishakha

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Vishakha by श्री प्रवासीलाल वर्मा - Shree Prvasilal Verma

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about प्रवासीलाल वर्मा - Pravasilal Verma

Add Infomation AboutPravasilal Verma

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
विशाख भी खेत की चोरी में पकड़ा दूँगा । यह लम्बी -चौड़ी बहस भूल जायगी । झरे दोड़ो दोड़ो विशाख - एक शोर देखकर -अरे वह देखो भेड़िया झाया सिक्षु पड़ा कर गिर पड़ता है और विशाख चला जाता है इध-उघर देख कर उठता हुआ -घततेरे की धूत्त बड़ा था । चला गया नहीं तो मारे डणडों के मारे डणडों के-- डण्डा पटकता है -खोपड़ी तोड़ डालता सुश्नवा नाग गाता हुआ आता है-- उठती है लाइर हरी हरी -- पएतवार पुरानी पवन प्रलय का कैसा किये पढेड़ा है उठती है छद्दर हरी हरी । निस्तब्ध जगत हे कहीं नहीं कुछ फिर भी मचा बखेड़ा है उठती है छदर हरी हरी । नक्षत्र नहीं हैं निशा में बीच नदी में बेड़ा हे उठती है छदर इरी दरी । हाँ पार लगेगा घबराओ मत किसने यह स्वर छेड़ा हैं उठती है ठहर हरी हरी । बेड़ा बखेढ़ा खेत सत रौंद नहीं तो पैर तोड़ दूँगा । सुश्रवा--नहीं मद्दाराज में तो पगडंडी से जा रहा हूँ । ८




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now