उद्योग प्रारब्ध विचार | Udyog Praarabdh Vichaar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विश्राम २. ९ इत्याश्वय्येबलान्वितो5पि बलिमिभेत्र परे संगरे । तथक्तं वरमेव दैवशरणं थिग्थिग्वूथा पौरुषम्‌ ॥ ६ ॥ जिस इन्दका साक्षाद बृहस्पति शिक्षक वच्च शख देवोंकी सेना स्वर्ग किला एरावत हस्तीके वाहन और साक्षाद्‌ हरिकी कृपा इत्यादि अनेक आश्चर्य बल युक्त भी इन्दकों युद्धमें अतिवढिष्ठ शजुओंने म्देन किया इसलिये सर्वे आशा को त्याग केवल देवकी झारणहीमें सुख है और वृथा प्रुषाथेको अनेकानेक घिक्ारहै ॥ ६ ॥ नमस्यामों देवान्ननु हतथियस्तेपि वद्चगाः विधिवेन्यः सोधपे श्रति नियतकर्मेकफठद् ॥ फल कर्मायत्तं यदि किममरेः किश्व विधिना नमस्तत्कमंभ्यो विधिरपि न येस्यः प्रभवति ॥ ७ ॥ भवेहारि कहते हैं हम देवताओंको नमस्कार करें सोभी ठीक नहीं वेमंद्बुद्धि तो आपही इन्द बह्मादि अनेकोंके आधीन हैं ॥ विधिकों नमन करें तो वह भी तो हमारे कर्मफलसे अधिक कुछ नहीं देसकता यावत्‌ भोग हमकों यादें हमारे दो कमोनुसार होता है तो देवतों तथा विधिसे क्या कामहे ॥ जिनसे विपरीत करनेमें विधि भी असमर्थ है ऐसे अपने मारव्धरूप कर्महीकों हम बारंबार प्रणाम करते हैं ॥ ७ ॥ भग्ाशस्य करण्डपीडिततनोम्ठॉनेंडियस्य श्रुधा कृत्वाझ5खुर्विवरं स्वयं निपतिती नक॑ मुखे भोगिन ॥ तप्तस्तत्पिशितेन सत्वरमसो तेनेव यातः पथा ठोकाः पश्यत दैवमेव हि तृणां दृद्धी क्षय कारणम्‌ ॥ ८ ॥ रातिकाठमें भूखसे दुबेठ इन्द्रिय तथा टूटी हुई कमरयुक्त स्पका कुछ खानेको मिठनेकी आशा नथी परन्तु एक मूषक स्वयं बिल निकाल उसके मुखमें गिरा सर्प उसके खानेसे अति वृप्र हुआ और अपने मागेंमें चढा इस विचित्र घटनाकों देख पुरुषोंकों अवदय निश्चय करना चाहिये कि वृद्धिमें वा कषयमें केवठ देवही कारण है ॥ ८ ॥ २




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