भक्तिकाल में रीतिकाव्य की प्रवृतियाँ और सेनापति | Bhaktikala Mein Ratikavya Ki Pravrttiyan Aur Senapati
श्रेणी : भारत / India
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
23 MB
कुल पष्ठ :
378
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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करने का प्रयास नहीं पाया गया है। पुहुकर की कृतियाँ शुद्ध साहित्यिक हैं ।
नायिकाभेद-सम्बन्धी “रसबेलि” नाम की एक स्वतन्त्र रचना भी मिली है । इनके
“रसरतन' में शास्त्रीय पद्धति का श्रत्यधघिक श्रनुकरण किया गया है । कुछ स्थलों पर
तो रीति कवियों की भाँति लक्षण आर उदाहरण भी प्रस्तुत किए गए हैं । श्वगार
का कोई शभ्रंग इनकी रचना में स्थान पाने से वंचित नहीं है । सुफी कवियों की
अपेक्षा रसरतन रीतिकाव्य के अधिक निकट है । इसी कारण इसकी विवेचना सुफी
कवियों से श्रलग की गई है ।
तृतीय श्रध्याय में भक्तिकालीन कष्णकाव्य में रीतिकाव्य की प्रवृत्तियों का
विश्लेषण है । इस म्रध्याय में विद्यापति, सुर तथा नन्ददास तीन प्रमुख कवियों का
विवेचन है । यह श्रध्याय तीन खण्डो में विभक्त है । इन कृतिकारों का विशेष महत्त्व
है इसलिए यह अध्याय बड़ा हो गया है । इन्हीं कवियों की रचनाएँ रीतिकाव्य को
प्रेरणा प्रदान करती रही हैं । इस अध्याय के प्रथम खण्ड में विद्यापति की पदावली
की विवेचना की गई है । विद्यापति के श्रन्य ग्रन्थों की समीक्षा यहाँ नहीं की गई है
क्योकि पदावली अकेले रीतिकाव्य कौ प्रवृत्तियों को दिखाने के लिए पर्याप्त है ।
रीतिकाव्य का कोई एेसा तत्त्व नहीं है जो इस ग्रन्थमें न प्रयुक्त हृश्रा हो । श्यूगार,
ग्रलंकार, प्रशस्ति सभीका विस्तृत वणेन यहाँ मिल जाएगा । इसी कारण कुछ
विद्वान् पदावली को भ्रव रीति-ग्रन्थ मानने लगे हैं । द्वितीय खण्ड में सुरदास की
विवेचना की गई है। इनके सन्दभ में केवल सूरसागर पर विचार किया गया है ।
शेष उनके नाम की रचनाभ्रों पर विवाद होने के कारण छोड़ दिया गया है ।
सूरसागर वस्तुतः साहित्य सागर है। रीतिकाव्यकी श्रधिकांश प्रवृत्तियाँ इसमें
वर्तमान हैं । भाव तथा कला दोनों क्षेत्रों में यह बेजोड़ रचना है । श्युगार-वर्णंन के
लिए इसने सर्वाधिक रीतिकाव्य को प्रभावित किया है । रीतिकाल में सुरसागर की
उक्तियों को ही ग्रहण करके कविंगण नया चमत्कार उपस्थित करते रहे हैं । तीसरे
खण्ड मे कविवर नन्ददास की रचनाओं की विवेचना की गई है। नन्ददास सुरदास
की झपेक्षा अपने “जड़ियापन' के कारण रीति कवियों की कलाकारिता के अधिक
निकट हैं । इसी प्रवृत्ति के कारण इन्होंने लक्षण-ग्रत्थों की भी रचना की है ।
नन्ददास ने भानुदत्त की “रसमंजरी' का हिन्दी स्वरूप उपस्थित किया है । इसके
अतिरिक्त “अनेकार्थ मंजरी' आर 'नाममाला' नामक दो और रचनाएं इसी कवि की
हैं जिनका उद्देश्य लक्षण-ग्रन्थों के समान ही है ।
चतुर्थ अध्याय में गोस्वामी तुलसीदास की .रचनाश्रों में रीतिकाव्य की
प्रवत्तियों का अनुशीलन हुआ है । श्र गार के कुछ मनोहर चित्र इनमें भी मिलते हैं ।
कवि का पांडित्य भ्रलंकारों के प्रदर्शन में दिखाई देता है । केवल इनके इस पक्ष को
लेकर विभिन्न विद्वानों ने स्वतंत्र ग्रन्थ लिख डाले हैं । इससे इनकी श्रलंकारप्रियता
का श्रनुमान सहज ही लगाया जा सकता है ।
पंचम ्रध्याय में भक्तिकालीन 'रीतिकवियों तथा उनकी रचनाओं की सुचना
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