भक्तिकाल में रीतिकाव्य की प्रवृतियाँ और सेनापति | Bhaktikala Mein Ratikavya Ki Pravrttiyan Aur Senapati

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Bhaktikala Mein Ratikavya Ki Pravrttiyan Aur Senapati by शोभनाथ सिंह - Shobhnath Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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६ करने का प्रयास नहीं पाया गया है। पुहुकर की कृतियाँ शुद्ध साहित्यिक हैं । नायिकाभेद-सम्बन्धी “रसबेलि” नाम की एक स्वतन्त्र रचना भी मिली है । इनके “रसरतन' में शास्त्रीय पद्धति का श्रत्यधघिक श्रनुकरण किया गया है । कुछ स्थलों पर तो रीति कवियों की भाँति लक्षण आर उदाहरण भी प्रस्तुत किए गए हैं । श्वगार का कोई शभ्रंग इनकी रचना में स्थान पाने से वंचित नहीं है । सुफी कवियों की अपेक्षा रसरतन रीतिकाव्य के अधिक निकट है । इसी कारण इसकी विवेचना सुफी कवियों से श्रलग की गई है । तृतीय श्रध्याय में भक्तिकालीन कष्णकाव्य में रीतिकाव्य की प्रवृत्तियों का विश्लेषण है । इस म्रध्याय में विद्यापति, सुर तथा नन्ददास तीन प्रमुख कवियों का विवेचन है । यह श्रध्याय तीन खण्डो में विभक्त है । इन कृतिकारों का विशेष महत्त्व है इसलिए यह अध्याय बड़ा हो गया है । इन्हीं कवियों की रचनाएँ रीतिकाव्य को प्रेरणा प्रदान करती रही हैं । इस अध्याय के प्रथम खण्ड में विद्यापति की पदावली की विवेचना की गई है । विद्यापति के श्रन्य ग्रन्थों की समीक्षा यहाँ नहीं की गई है क्योकि पदावली अकेले रीतिकाव्य कौ प्रवृत्तियों को दिखाने के लिए पर्याप्त है । रीतिकाव्य का कोई एेसा तत्त्व नहीं है जो इस ग्रन्थमें न प्रयुक्त हृश्रा हो । श्यूगार, ग्रलंकार, प्रशस्ति सभीका विस्तृत वणेन यहाँ मिल जाएगा । इसी कारण कुछ विद्वान्‌ पदावली को भ्रव रीति-ग्रन्थ मानने लगे हैं । द्वितीय खण्ड में सुरदास की विवेचना की गई है। इनके सन्दभ में केवल सूरसागर पर विचार किया गया है । शेष उनके नाम की रचनाभ्रों पर विवाद होने के कारण छोड़ दिया गया है । सूरसागर वस्तुतः साहित्य सागर है। रीतिकाव्यकी श्रधिकांश प्रवृत्तियाँ इसमें वर्तमान हैं । भाव तथा कला दोनों क्षेत्रों में यह बेजोड़ रचना है । श्युगार-वर्णंन के लिए इसने सर्वाधिक रीतिकाव्य को प्रभावित किया है । रीतिकाल में सुरसागर की उक्तियों को ही ग्रहण करके कविंगण नया चमत्कार उपस्थित करते रहे हैं । तीसरे खण्ड मे कविवर नन्ददास की रचनाओं की विवेचना की गई है। नन्ददास सुरदास की झपेक्षा अपने “जड़ियापन' के कारण रीति कवियों की कलाकारिता के अधिक निकट हैं । इसी प्रवृत्ति के कारण इन्होंने लक्षण-ग्रत्थों की भी रचना की है । नन्ददास ने भानुदत्त की “रसमंजरी' का हिन्दी स्वरूप उपस्थित किया है । इसके अतिरिक्त “अनेकार्थ मंजरी' आर 'नाममाला' नामक दो और रचनाएं इसी कवि की हैं जिनका उद्देश्य लक्षण-ग्रन्थों के समान ही है । चतुर्थ अध्याय में गोस्वामी तुलसीदास की .रचनाश्रों में रीतिकाव्य की प्रवत्तियों का अनुशीलन हुआ है । श्र गार के कुछ मनोहर चित्र इनमें भी मिलते हैं । कवि का पांडित्य भ्रलंकारों के प्रदर्शन में दिखाई देता है । केवल इनके इस पक्ष को लेकर विभिन्न विद्वानों ने स्वतंत्र ग्रन्थ लिख डाले हैं । इससे इनकी श्रलंकारप्रियता का श्रनुमान सहज ही लगाया जा सकता है । पंचम ्रध्याय में भक्तिकालीन 'रीतिकवियों तथा उनकी रचनाओं की सुचना




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