राम-चरित | Ram-Charit

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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५५ कि उपादूघात ५ बुद्धिमान ओर व्यवहार कुशल कच्छ सुकच्छ आदि चार हजार राजाओोंको भी यथा- योग्य प्रदेश दिये । इस तरह कम भूमिकी सारी व्यवस्था कर भगवान ऋषभ भोगोपभोगमें लीन हा गय । यहां तक कि उनका शआ्रायुक्रा वहुतस समय यों हो निकल गया । एक दिन भगवान राजसिहामनपर बेठें हए थे ओर नीलांजना नामकी णक अप्सरा उनके सामने नाच रही धरी । एका एक उसकी मृत्यु हो गड । यह्‌ देखकर भगवानको वेराग्य हो गया । वे सोचने लगे कि इस अमार संसार ओर इन विनाशीके सुखोको धिक्रार दै में इन सब नकली ओर नश्वर सुखोंका छोड़कर शिव सुखकी प्राप्ति के लिए अब एकान्तमें तप करूंगा । भगवान यह सोच ही रहे थे कि भक्तिसे भर हुए लॉकान्तिकरेव वहाँ आ गये, उन्होंने भी भगवानकी स्तुति करते हुए उनके वेराग्य भावोंकों और भी सराहा छोर कहा-- हे नाथ आप घन्य हैं । पसापकारके लिए इस प्रकार संसार नाशक तपका आचरण करनका सा म, उद्यत हुए हैं ।” लोकान्तिक देवतों इस तरह स्तुति कर स्वग लोट गय श्रार इन्द्र भगवानका विरक्त जानकर पालकी लेकर विनयसे उनके सामने झाकर खड़ा हो गया ! भगवानन दीक्षाकं पहले ही अपने भरतादि सा पुत्रोंमं यथायोग्य साम्राज्यका बटवारा कर दिया था | खतः सवस नित्रत्त होकर व तपावन जानेक लिंए पालकीमें बेठ गये आर इन्द्र उस पालकीका कन्यपर रग्वकर चल दिय | भगवान तिलक घनम जाकर उतर गय ओर `` नमः सिद्धभ्यः” कहकर उन्होने दीक्ता महरा करली । तमाम वस्त्र आाभूपण उतार दिय, पंच मुष्टि केश लोच करिया श्रौर निःपग्प्रही वनः मुनि हो गय । इन्द्रने उनके केश लेकर चीर समद्रमें ने पण कश दिये । इस तरह दीक्षा महोत्सव मनाकर देव आदि सब अप न स्थान चले गये | उनकी भक्तिसे अन्य चार हजार राजाओंन भी उनके श्मिप्रायको बिना जाने हीं नम्ता धारण कर ला ; भगवान हुः महीने तक कायोत्सगं धारण कर निश्चल खड़े रहे । तबतक व गजा लोग परिपह आदिके कारण भ्रष्ट हो गये । ज्यों ही वे फलादिकसे पेट भरने लगे व्यों ही यह डरावनी आकाशवाणी हई-- “आप लोग व गृहस्थ नहीं रहे किन्तु योगी बन गए ह । अतः यदि आप स्वच्छुन्ः विचरण करेगे तो हम आपका बध कर देगे । राजा लोग यह सुनकर बढ़े भयभीत हुए और पर- स्पर विचार करने लगे कि अगर भगवानकों छोड़कर हम नगरकों लोटत हैं तो राजा भरत हमें प्राण दण्ड देंगे झथवा क्रोघसे देश निकाला दे देंगे या स्वयं भगवान ही जब पुनः राजा होंगे तो हमें मारेंगे । इसलिए फल फूलादि सेवन करत हुए हमें यहीं रहना चाहिए | इस प्रकार त्रिचार करके सब जटा भस्म धारण क्र मिथ्यादृष्टि बनकर वहां बनमें रहने लगे । जब छ मास बीत गये तब एक दिन मध्याह्नके समय भगवानने सोचा-च्राहारके बिना बडे बड़ धीर वीर राजा भी तपसे भ्रष्ट हो गय, उनको न जाने क्या गति हुई होगी । अगर मुनि इसी प्रकार आहार नहीं करेंगे तो वे दूसरोंकों कल्याणका माग केसे बता सकेंगे ? केसे धम और मोच्तकी प्रवृत्ति चलेगी ? अतः परोपकार, मुक्ति और धर्मका कास्ण यह शरीर है इसकी रक्षा करना उचित हे । ऐसा सोचकर भगवान आह्ारके लिए निकले । उस समय लोग मुनिको आहार देनेकी बिधि नहीं जानते थे । भगवान आहारके लिए गांव गांव जाते थे और लोग कन्या बस्तर आदि लाकर उन्हें भेंट देनेका प्रयल्न करते थे । इस तरह जब छ मास बीत गये तो एक दिन बिहार




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