अनुबंध-विचारधारा | Anubandh Vichardhara

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Anubandh Vichardhara by मुनि नेमिचंद्र - Muni Nemichandra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शदे इद्ौलिए कि इन यमतुलादार मे देखा भारत के पा शपनी उच्चः ध्छति मौर आप्वार्थितां म सहन्‌ दकि पड़ है, शन्ति है वद बिखरी हुई ' उठे एकबित करके योऽ उपयोय किया जाय हो डिश की य्पब्श्या सतुल्ति रखी जा सरदी दै । भारतीय स्कृति के भ्रामने विश की. खनता एुकटर भाथा लगाए बेटी दै, पर क्रिनिमे अपनी बत्ताकरी एडी के नीचे उसे कुचल रखा दैं । इपतिए एक तरफ उठने ब्रिटेन के सामने अदिविक विदोद किया, दूसरी लोर भारत की भ्सि६ श्रतीकाराएमक दाछि जागूत की । भर्ल्न यद कि विशवमतुढाकार सदात्मागाँधीशी जगत्‌ की समतुरुत कायम रखने के छिद्‌ इतत एषा करते रहे । मणवान्‌ महाषीर भौरम शद दोग महापुरुषों ने अपना राजपाट वर्षों छोवा पा? लौर राजपाट छशष सी वे एकात वन बारी क्यों न बने समाअके मोच रदकर उ-हने षयो भौर कमा साधना की * गहराई से इन दोनों के जोवन का निरीक्षण करने पर माहूप पढ़ेंगा कि विद को समतुला रखे बिना रिदव के साथ मित्री हो भदी सकती थी, विश्व घुख की घना अपू रहती । इसी रृषिशोण को ठेडर थे बनवासी नहीं, लमगवाधी यने और जन-जन के जीवन को टटोला दिदव के प्रश्नों को धर्मदष्टि से इल किया, विद को समसूत्र पर लाने का अरततं प्रयत्न छिपा । राजा. बने रदते तो अपने राज्य से बाइर्बाठि हो इन्हें पराये हो समझते पर पराएं रद्द कर विद्व को समदुला कायम गद्दी रखो का सकती थी योग्य भनुबन्थ नहीं किया उए सता था, इसल्ए दे समस्त विश्वके वने! शदे ष्टी शो परये नहीं लगे । इद्दोने अन्तर्गिरीक्षण श्रो कोधादि विकारं इह शुश्मन जैसे ्गे अदय, पए उन्हें सी इदोने रूगन्तर कर दिया, बयायोग्य स्थान पर्णा दिया, लिप्‌ वै मी दुर्मन गण्डे) बड परर - दायं सदाः के लिए चाद मे रे ठो. जगत अब्यवस्थित, रिसयत यू




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