भावना विवेक | Bhavna-vivek

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चैनसुखदास न्यायतीर्थ - Chensukhdaas Nyaytirth

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भंवरलाल न्यायतीर्थ - Bhanvarlal Nyayteerth

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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४३: थ + ~~~ ~~^^~~-~~~~~-~~~-~~~~--^~~^~^~^~~-^~~^^ उपाध्याय शौर साघु चे पंच पेष भी सयग्दशनादि भँ के दा ही बनते हैं शत: पाठकों को उन भावों को ही नमस्कार करना चाहिये । प चौ > सफ़शाः विकलाः सर्वे सर्थ्ञ। परेषठिनः व्रयश्चान्ये भवन्तीह भावैर्मावान्नमस्छुरु ॥२॥ सकल (शरीर सदत) शौर विफल (शरीर रहित) सवेज्ञ श्रथौत श्रित रौर, सिद्ध प्ररमेषटो तथा श्रन्य तीन , स्ाचारय, उपाध्याय 'हर साधु परमेष्ठी-ये सब भावों से ही बनते हैं, इस लिए भावों को नमस्कार करो क्योंकि इन पूज्य पदों के भाव ही मूल कारण हैं-उनकी समाराधना से ही इम इन पूज्य पदों को भाप्त कर सकते हूं। - - जो परमपद-लोक से पूज्यपद-में स्थित रहे उसे परमेष्टी कहते है । परमेष्ठी पाच है-श्ररिदंत, सिद्ध, श्रा चाय, उपाध्याय मीर साधु । इनमे साधु पद्‌ सामन्यदै । जी भी गृह्‌ सम्बन्धी श्ारम्म पिह का त्याग, करके श्नपने श्रात्म-कल्याण के मर्म मे लग गया है उसे साघु कहते ह} झ्ाचार्य और उपाध्याय पद बिरिता के योतक हैं। जो साधु संघ मे पाठ्न का काम करते हैं वे उपाध्याय हैं श्रीर संघ के नेता झाचाये कहे जाते हैं। सामान्य साघु्ों से इनके भाव कुछ चढ़े हुए होते हैं । 'अरिहंत और सिद्ध परमेष्ठी का स्थान सब में उत्कएर हैं । अरिदंत परमेषी को सशरीर युक्त और सिद्ध परमे्टी को अशरीर मुक्त कहते हैं। झपरनि:श्रेयस




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