षड द्रव्य की आवश्यकता व सिध्दि और जैन साहित्य का महत्त्व | Shad Dravya Ki Aavshyakta Va Siddhi Aur Jain Sahitya Ka Mahatv

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पा का है. ३६) 1 न फ हु 5 , है. सर्थात्‌ नो सर्व म्पति स्वमार दै उसे व्य कहत है| पर्णयािक नयकी अयेनताते उत्पाद, यय, प्रौन्यको द्न्यप्ते प्रथकू माव है और दरन्यापिक; नयको अजाते श्थयङ्‌ माब दै क्योकि दयते मदग कहीं उत्वादादि नहीं देखे जाति । यहा छक पमे उत्पादार्कि मेद्‌ अभेद दोनो रौ ‰ मत मेद भभेद परत्पर विरोधी होनेसे एक जगह नहीं रह सकते । ऐसा नहीं कहना चाहिये जैसे कि एक पदार्थमें अपने अमीघायक ( वाचक के अभिषान (कयन) की सपेकषा अभिधेयता है और पर अभितायकके अभमिषानरी भपेक्षा अनमिधेपना है या स्वरूपकी छापेसा रूपता कर परख्पाझारती अपेक्ा भ्पता दे उसोतरह पर्या यार्पिक नयकी सपा मे नौर दषार्कि नप्को श्येता सेद्‌ समझना चाहिये। यहा थोड़ेसेमें पर्याव/्मिक नप दर यार्पिक नय लेख्य होनेते छिखता ६ । जो साददिमामण्ण अविणाभूद विदोपस्टर्पद । णाणा छात्ति वखादो दच्त्यो सौ णयो दद्‌ ॥ शर्पाति- विशेष रूपसे अविनामानी (विशेषरूपके बिना जो न हो सके) नो सामा- न्य वम उपे युकतियो द्वस प्रऽ्ण कनेरी नयको कपि नप कते ई । क्रये सामान्य विशेषध ये दो घर्म रहते हैं। विशषकों अपधान कार गौर पामायफी 'मुरपतासे जो पदाथा ग्रहण काता है उसे द्न्याविक तथा सामन्यकी अप्रभानता पूर्वक विशेषकी सुरथ तापे मो पढ़ाने पर्यापका निरूपण करता हे उसे पर्यायार्विक नय कहते हैं | नयके मेद प्री दॉकी सपेपते यह सर्षि हो सकती है-' मय ~-----4 द्रन्यार्षिक पूर्यायार्पिक _ --------1---. र क ९ | # भेबयामद्ेन्या ०. शास्रीयदन्या ० ८ सव्याप्मर्या० श्षास्नीयपर्थार शी 1 | | | गणम, सप्रह, ग्यवहार्‌ ऋ शब्द,सममिरू एवमून भ. पतेमानने ० मूतनगम,मावोमे ० मान्यप्त०विरोषसबशुद्धय ० शुद्ध: स्पृच्यरजु ० सुश्यकम “यो „ _ # इसरें मेद-विधिनिरपेश्र ० छुद्ध, सत्ताप्राहक० शुद्ध, मेद विकरपनिर्पस ० शुद्धि कर्माशाधिमापे० अशुद्ध, उत्पादन्ययमा०+ बुद्ध, सेदश्सनामापि० युद्ध, म-वयदर स्वदन्पादिपाह ० परद्रन्यादि परममाधयाही ० म र इसके मेद-मनादि नित्यपर्या०, सादिनित्य०, भनिध्य शुद्ध अनिभ सश ० कर्मागरविनिक्ष वलि शु०) कर्मागविहपत्त मनिप्य अशुद्ध०, न म




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