भारत में प्रतीत पूजा का आरंभ और विकास | Bharat Me Pratik Puja Ka Aarambh Aur Vikas
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
312
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( ज )
जिसका अथं है, 'भगवान' 1“ ` ““ इस मदिर-मस्जिद के सात फाटक वे
इस जात के प्रतीक मानि जाते ह कि अगर कोई व्यनिति काम, कोध, लोभ, ट्ष,
बीमारी, बुढ्मपा ओर असत्य नामक सात द्वारो को पार कर ले, तो उसे मगवान
के दर्दान होगे ।”' श्री वर्माजी ते सामिक अभिप्राय लिखा है, ““लायुर-आडवन,
हिंदुत्व ओर इस्लाम को ही नहीं, उत्तर और दक्षिण भारत को भी जोडने-
वाली कड़ी है” (पु० २२५-२२६) । केरल प्रदेश की कुछ वर्तमान विशेषताएँ
विद्वान ग्रथकर्ता ने जो पृ० २२८--२३१ पर दी हैं तथा दुर्योधन और रावण
के मदिर और उनवी पूजा के बार मे पृ० २३१-र३र पर जो जानकारी दी
है, वह प्राय अन्यत्र दुलेभ मानी जा सकती है ।
प्रतीरु पूजा का सिस्त-भिसत शिरपकलाओ पर प्रभाव कंसे हुआ, यह तृतीय
खंड के तीसरे परिच्छेद में सु दर ढंग ले द्ग्दिशित हुआ है ।
तो
यह कहने को आवश्यकता नहीं है कि श्री वर्माजी ने निगम तथा लागम
ग्रथो का अ।वश्यक परिशीलन करने ओर दीघकालके किचार-मयन के पइचातु
इस ग्रथ को रचना को है । निगुण-निराकार का छोड़कर साकार-सगुण का
आधार परमेश्वर के तस्व का माननवाना व्यक्ति क्यो लेता है, इसका उत्तर
विष्णुपुराणम् बहुत सुद्र शन्येमे मिलता है--
ध्यात्वाकंमण्डले विष्णु वेदभंत्रेरभिष्ड्तम् ।।
धावमाणे तथंवारनौ जुहुयात् कायं सिद्धये ।
तत्र यत्र कैवल ध्यान वेदान्तोकष्तमनाशबम् ॥
न॒ तव्रन्द्रियदोर्बल्यात् कर्मस्थस्याधिकारिता ।
यथा गिरितटाग्रस्यवनस्पतिफलेच्छया ॥
उपायो वततेऽश्रान्तस्तथासौ यत्नमाचरेत् ।
सवत्र क्रमवान् यत्न कायो नेच्छंव केवलौ ॥
तत् कायवाड मनोषेगं कमादिच्छेत् परांगतिम् ।
निराकारे ठु या भवत्या पुजेष्टा ध्यानमेव वा \\
रमणीयमिबाभाति तदन्थेस्य कारणम् ।
स्थ्लभावप्रसद्धीन नन्मनास्येन्द्रियाणि हि ॥
शृक्मार्थं॑न प्रपदन्ते चिरार्च किमुताचिरात् ।
नचरशूप विनादेवो ध्यातुः केनापि क्ष्यते ॥
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