जैन सांस्कृतिक चेतना | Jain Sanskritik Chetna
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
136
श्रेणी :
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करेंगे । वह परमभाव उनकी अंतिम साधना तक बता रहा । शादृलन से सदार
निष्क्मस कर महावीर कर्मर्यास पहुंचे जहां उन्हें कोई पहचान से सका । कि
वे एक महासामन्त के पुत्र थे इसलिए शायद मे जन-नीवम मे नहीं भा एके हनि;
संमूची साधना के दीच इन्द्र रादि जसी कोई न कोर चिजूति घनेकां संरक्षण
करती रही । उपस्गों का प्रारम्भ भौर भम्त दोनों योपालक से हुधा हैं । मां से
संम्वद्ध होने के कारण क्यो न हस संभोग को वात्सल्य धंवका श्रतीक मांगा जाय
जी जैनधर्म का प्रमुख झंग है ।
तपस्वी महावीर पर प्रथमत: ग्वाला जब प्रह्मार करने दौड़ता है तो तुरम्त
ही उसे भाग करा दिया जाता है कि-भो मूखें ? तू यह क्या कर रहा है? कया तू
नहीं जानता ये महाराज सिद्धार्थ के पुत्र वर्धमान राजकुमार हूँ । ये भ्ात्म-कल्वारं के
साथ जगतब्कल्याण के निमित्त दीक्षा धारण कर साधना में लीन हैं ।* यह कथन
साधना का उद्दृश्य प्रकट करता है । इस उद्देश्य की प्राप्ति मे साध्य भौर साभन दोनों की
विशुद्धि ने साधक को कभी विघलित नही होने दिया ।
यहा इन्द्र वधमान की सहायता करना बाहृता है पर साधक वर्धमान कहते
हैं कि “अन्त केबसज्ञान की सिद्धि प्राप्त करने में किसी की सहायता नहीं लेते ।
जितेन्द्र भपने बल से ही केवलशान की प्राप्ति किया करते हैँ ।* इसके बावजूद इन्द ने
शिद्धाथं नॉमक ग्यतर की सियुक्ति कर दी जो वधंभान की धंस्त तक रक्षा करता
रही । हम जानते हैं, महांबीर के पिता का नाभ सिद्धार्थ था भोर भीतंभ बुद्ध की
नी नाभ सिद्धार्थं था । विद्धाये कौ ध्यतर कहकर उत्स्लिखित करने को दटरेश्य यही ही
सकता है कि भटना-लेंसक थोतम बुद्ध के व्यक्तित्व को नीचा करना चाहता रहा
हो । दोनो भ्मों मे इस प्रकार की घटनाओं का झमाव नहीं । इन्द्र को वेंदिंक सरति
में प्रधान देवता का स्थान मिला | बधेमानके नरणों में नतमस्तक कराने का
उद्य एक भोर साधकके व्यक्तित्व को ऊंचा दिखाना भौर दूसरी भोर श्रमण
सस्कृति को उच्चतर बतलाना रहा है । सिद्धायं यदि ब्यतर होता तो उसने महावीर
1
1. बारस वासाई बोसद्ठकाए चियतत देहे जे केई उवसत्धा समुप्पर््जंसि, वे
जहा, दिव्या वा, माणुस्सा वा, तेरिज्छिया वा, ते सम्बे उवसम्मे समुण्वण्छ,
समाणे सम्मं सहिस्सामि, खमिरस्सामि, झंहियासिस्तामि । अचारांग०
श्रुताष्यवन 2, झ० 23, पत्र 391
2. त्रिशच्ठिशलाकांपुरुषचरित, 10,3,17-26
3. भ्रावश्यक पूणि 1, प. 270 । सबको पड़ियतो-सिद्धल्यठितों गे
जिषष्टिशलाकापुंकणरितं, 10. 3. -29-33
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