जैन सांस्कृतिक चेतना | Jain Sanskritik Chetna

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Jain Sanskritik Chetna  by पुष्पलता जैन - Pushplata Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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0 करेंगे । वह परमभाव उनकी अंतिम साधना तक बता रहा । शादृलन से सदार निष्क्मस कर महावीर कर्मर्यास पहुंचे जहां उन्हें कोई पहचान से सका । कि वे एक महासामन्त के पुत्र थे इसलिए शायद मे जन-नीवम मे नहीं भा एके हनि; संमूची साधना के दीच इन्द्र रादि जसी कोई न कोर चिजूति घनेकां संरक्षण करती रही । उपस्गों का प्रारम्भ भौर भम्त दोनों योपालक से हुधा हैं । मां से संम्वद्ध होने के कारण क्यो न हस संभोग को वात्सल्य धंवका श्रतीक मांगा जाय जी जैनधर्म का प्रमुख झंग है । तपस्वी महावीर पर प्रथमत: ग्वाला जब प्रह्मार करने दौड़ता है तो तुरम्त ही उसे भाग करा दिया जाता है कि-भो मूखें ? तू यह क्या कर रहा है? कया तू नहीं जानता ये महाराज सिद्धार्थ के पुत्र वर्धमान राजकुमार हूँ । ये भ्ात्म-कल्वारं के साथ जगतब्कल्याण के निमित्त दीक्षा धारण कर साधना में लीन हैं ।* यह कथन साधना का उद्दृश्य प्रकट करता है । इस उद्देश्य की प्राप्ति मे साध्य भौर साभन दोनों की विशुद्धि ने साधक को कभी विघलित नही होने दिया । यहा इन्द्र वधमान की सहायता करना बाहृता है पर साधक वर्धमान कहते हैं कि “अन्त केबसज्ञान की सिद्धि प्राप्त करने में किसी की सहायता नहीं लेते । जितेन्द्र भपने बल से ही केवलशान की प्राप्ति किया करते हैँ ।* इसके बावजूद इन्द ने शिद्धाथं नॉमक ग्यतर की सियुक्ति कर दी जो वधंभान की धंस्त तक रक्षा करता रही । हम जानते हैं, महांबीर के पिता का नाभ सिद्धार्थ था भोर भीतंभ बुद्ध की नी नाभ सिद्धार्थं था । विद्धाये कौ ध्यतर कहकर उत्स्लिखित करने को दटरेश्य यही ही सकता है कि भटना-लेंसक थोतम बुद्ध के व्यक्तित्व को नीचा करना चाहता रहा हो । दोनो भ्मों मे इस प्रकार की घटनाओं का झमाव नहीं । इन्द्र को वेंदिंक सरति में प्रधान देवता का स्थान मिला | बधेमानके नरणों में नतमस्तक कराने का उद्य एक भोर साधकके व्यक्तित्व को ऊंचा दिखाना भौर दूसरी भोर श्रमण सस्कृति को उच्चतर बतलाना रहा है । सिद्धायं यदि ब्यतर होता तो उसने महावीर 1 1. बारस वासाई बोसद्ठकाए चियतत देहे जे केई उवसत्धा समुप्पर््जंसि, वे जहा, दिव्या वा, माणुस्सा वा, तेरिज्छिया वा, ते सम्बे उवसम्मे समुण्वण्छ, समाणे सम्मं सहिस्सामि, खमिरस्सामि, झंहियासिस्तामि । अचारांग० श्रुताष्यवन 2, झ० 23, पत्र 391 2. त्रिशच्ठिशलाकांपुरुषचरित, 10,3,17-26 3. भ्रावश्यक पूणि 1, प. 270 । सबको पड़ियतो-सिद्धल्यठितों गे जिषष्टिशलाकापुंकणरितं, 10. 3. -29-33




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