नागरीप्रचारिणी पत्रिका | Nagripracharini Patrika

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Nagripracharini Patrika by श्री सम्पूर्णानन्द - Shree Sampurnanada

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६२ नागरीप्रचारिणी पत्रिका ८ ८, 5 मै घटक्रगत मेद्‌ ( फोनेमिक कंट्रास्ट ) नहीं है। घटकों की दृष्टि से संस्कृत में ८, ८, श्रौर ८ ६ प्रकार की ही उपस्थिति है, ऐसा कहा जा सकता है। संस्कृत झागंतुक शब्दों के प्रभवस्थान की जाँच करने के लिये दो विकल्प को विचार सकते है १ - संस्कृत शब्दौ की समूहराशि, जो भाश्चा माषाश्रौ के इतिहास मे सायत मौजूद है, पर जो परिवर्तित व्यवस्थाश्रों के साथ एकरूप न वनकर्‌ श्रपने विशिष्ट उद्चारणुतर्त्वों के साथ ही वाग्व्यवहार में उपस्थित है। लेकिन जब किसी भी प्रस्तुत व्यवस्था कै श्ननुलण मँ ष्वनिव्यवस्था की संगति करनी होती टै तव एक व्यवहार मे, श्रौर दूसरी व्यवस्था में उनका उच्चारणस्वरूप एक ही रहने पर भी उनके ध्वनिधटकों की संगति एक नहीं हो सकती । 'शुद्धत्व', प्रतिष्ठा श्रौर संस्कृत का उपयोग करनेवाले उन्नतश्रू वर्गों के स्वभाव के प्रभाव से उनके संस्कृतीय ध्वनिस्वरूप का निवाह होता था ) ये गुच्छु संस्कृतीय प्रशाली की एक अनवच्छिन्र श्ंखला को दिखाते हैं । इस विकल्प के स्वीकार के साथ साथ हमे यह भी स्वीकारना होगा कि प्राभाझा में मिनस्थानीय व्यंजन- गुच्छ, उचारण की दृष्टि से ८, 7, ९; श्ौर ८, 7, 8 प्रकार के ये| ध्वनिघटक की दृष्टि से ८, ८, 0, श्रीर ८, ०; या 0, ०, 5 श्रौर ८8 में कोई भेद नहीं था । ८, ०, श्रौर ८ 5 के रूप में उसका लेखाजोखा हो सकता है। संसत का यह्‌ “निजी उच्चारणुतत्व, प्राभाझा से नमाश्ा तक की माधाव्यवस्थाश्रों के श्रांतरिक परिवर्तनों में भी सुरक्तित था । ऐसा होने पर भी हम मान लेते हैं कि भाज्ा की पूर्व भूमिकाओं में इन गुच्छी का '्वनिस्वरूप ८, 0; 7; श्र ८, ८; 5 था ( उस समय के उद्यार्णसमूह को प्रात करने का कोई साधन हारे पास नहीं है )। फिर भी एक समय, जिसमें संस्कृत द्यागंतुक शब्द लिए गए. थे श्रौर उनका स्रूप सब काल मैं. निश्चित ही श्राता चला--ऐसे भाषासमाज के श्रस्तिस्त्र वी शक्ति कम हे। माच्ना भापाशों में उसके इतिहास के हर तबके में संस्कृत के द्रारंतुक श्दों का प्रहण होता ही रहा हैं । २ - ऐसा सोचा जा सकता है कि नवीन संस्कृत शब्द, सांस्कृतिक या. साहित्य की माधागत परंपरा से प्रत्येक काल में ृहीन किए जते रहे हैं, श्रर्थात्‌ उनका श्रागमन निरंतर चालू ही रहा है । इन शब्दों के ध्वनिस्वरूप का परिवर्तन समाज के मिन्न मिन्न स्तरों में मिन्न मिन्न रीति से हुआ्रा होगा । श्धिक शिष्ट दौर संस्कृत समाज में बे संस्कृत ध्वनिस्वरूप के श्रघिक निकट रहे होंगे श्रौर प्रामीण स्तरों में उनका ध्वनिस्वरूप, संस्कृत से श्रधिक दूर रहा लेगा । माधागत इतिहास की भिन्न मिल भूमिकाओं में संत शब्दके श्रागमन से करोब करीब दो स्तरों में उनका श्रस्तित्व दो सकता हैं। एक स्तर है “शुद्धता' की




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