पं. न्यायाचार्य महेन्द्रकुमारजी और महापुराण | Pandit Nyayacharya Mahendrakumarji Aur Mahapuran
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
67
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)| ६ |
उसका उपदेश दिया गया सा माना जाय तो उनके भस्तादिकं पुत्र वरे
सभी बहांतक धर्मज्ञानस अछिस रहे ऐसा मानना पडेगा | इस टष्िसे बिचार
करने पर यहा मुद्दा विचारणीय नहीं ।
२ दूसरा मुद्दा बैसेही अविचारणीय है। तीन वर्णोमेंसे जो न्रतधारी
थ उनका सन्मान करके भरतनें श्राह्मणवर्णकी स्थापना की यह कहना
मिथ्या है । मरतचक्रवर्ती अणुत्रती पुरुष्रौका सन्मान करता है ओर श्रतोपासका-
ध्ययन धर्भ॑मुच्रके अनुसार उनके विरिष्टं आचरण स्थिर रहनेके स्थि उपदेश
देता है। वह सोलहवा मनु होनेसे और ब्रह्मर्षिं होनेसे उसको धर्मशाख्रका
पूण ज्ञान था इसस्ि उसको चतु थवणेकी स्थापना केरनेका अधिकार था |
इस विषय राज्यव्यवस्थामे रहकर भगवानके धर्मसूजानुसार उपदे देने
कोहं बाधा उपस्थित नहीं होती । फिरभी भगवान और श्रीमरतचक्रवतीं
इन दोनोंनेद्दी राज्यव्यवस्थामं रहते हुयेही यह समाजव्यवस्था की वह 'घर्मे-
व्यवस्था नहीं थी यह दिखानेका क्या प्रयोजन है ? विशेषतः ब्रतसंस्कारसे
किसीकोभी ब्राह्मण वननेक। मागे खुछा हुआ है। यह लिखना आगम
विरुद्ध है।
३ तीसरे मुद्दे कुछ तथ्य नहीं । दीक्षान्वय क्रियासे किसीभी अजे-
नको जैनधर्मकी दीक्षा केवल एकह्ी दातपर जो कि भव्य हो और सन्मार्ग ग्रहण
करना चाहता हो, दी जाती है, यह कहना असत्य है। भव्यत्व जो कि
आत्मनिष्ट गुण है उसका ज्ञान किसीकोभी होना अदक्य है। केवल
सन्मार्ग ग्रहण करनेकी इच्छा मात्रसे इतर गुणोंका अप्िष्ठान दीक्षाह पुरुष हो
जाता है यह कल्पना अतिरंजित दै]
४ चौथा मुद्दा-वणलाभ क्रिया करनेबाद उसको समान आजीविका
करनेवाले वर्णमें ( समूहर्म-जातिमं ) मिलाकर उनके अधिकार देनेके लिये है ।
इसपरसे समान आजीविका करनेवाला एक अलग समूह माना जाता है।
ऐसा स्पष्ट है। फिर जाति न मानना यह केसा सिद्ध होता है । जब अलग
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