जननायक | Jannayak

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Jannayak by रघुवीर शरण - Raghuveer Sharan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नहीं मिल पाया, जिसके कि वे श्रधिफारी है । इनके कई कारण हो सकते है। गायद मित्र जी उन हथकटों से वाकिफ नहीं है, जिनके बिना विज्ञापन की इस टुमिया से प्रतिग्ठा पाना श्रत्यस्त कठिन है। ट्सरों को घक्का देकर श्रागे दटने की प्रवृत्ति उनमे है ही नहीं । यह भी सम्भव है कि वे श्रपनी रचनाओं में वह चमत्कार न ला पाते हो, जो एफ साथ हृदय पर फादू करने में समर्थ होता है शरीर जिसके विना वृहदाकार ग्रस्थ भी जहाँ के तहाँ पढ़े रह जाते है। पर इतना हम श्रवण्य जानते है कि मित्र थी में लगन ह रीर पररिथसयीचता भी, श्रन्यथा श्रपने कुल जमा ज तीस चर्पीय जीवन में वे इनने ग्रन्थ ने लिख पाते ! मित्र जी ने दुनिया देवी है, हृदय के श्रन्तदन्द्ध से वे गुज़रे है श्रौर प्रनैके सामाजिक श्रायात उन्हें नहने पड़े है । उनकी कई फुटकर रचनाओं में उनका सवरपं स्पष्ट वोन उठा है-- यया 'दोपी कौन र 'पोडपी का दाव' | उस महाफाव्य में उन्हें कहा तक सफलता सिली है, इस प्रन का उत्तर देना कठिन है। एक वात तो स्पप्ट है, वह यह कि हिन्दी का क्य भो वेततमान क्वि ६०० पृष्ठो के विस्तृत मार्ग में पाठकों के सन को लगाये नहीं रह सकता । उसके लिये जिस श्नस्त वैं की श्रावस्यकता वह श्राज के श्रीसत दर्जे के पाठक में है ही नहीं । पर महात्मा जी का जीवन वहमुती था श्रौर कार्यकेत्र श्रत्यन्त विस्तृत, सम्मवत इसीलिये मिय जी को सजदूरन विस्तार करना पड़ा । लेपिन यह्‌ दोप कवन मित जी का ही नहीं , हिन्दी के श्रघिकाद कवियों तथा लेसकों का है। वे प्रपनी रचनाग्नो को कसते नहीं, उनमें दाद छाँट नहीं करते । पर इसके बावजूद मित्र जी की इस रचना के ग्रनैक स्थल चमत्कारपुर्ण बन पटे है । मित्र जी को 'मोती' चव्द से बहुन प्रेम है, बह उनका सफिया-कलाम है। तीन चार पृष्ठ के भीतर १०-१२ “सोती हमें मिने । श्री सुमिवानन्दन जी पन्‍्त ने सुवर्ण या स्वर्ण का प्रयोग इतनी दफा फिया है कि उनमे देखकर श्ास्चर्य होता है। कवियों की ये छोटी छोटी कमज़ोरियाँ हमारा मनोरंजन करती है । 'मोती' चव्द के साथ साथ




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