गीता में ईश्वरवाद | Geeta Mein Ishwarwad
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12 MB
कुल पष्ठ :
426
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ग्रत्थकार को भूमिका ।
गीता वड़ा ही ग्रपच परन्ध है । संसार के साहिय मे एसा
उपादेय शरीर उत्छृ्ट दूसर मन्ध नहीं है । गीता हत वड़ा भ्रन्य
नहीं है । उसमें सिफ़ सात सौ रोक हैं । पर फिर भी उसमे सव
धम्मो का सार ३, सब शालो क सार का भी सार है। जिस तरह
समुद्र को मध कर अमृत निकाला गया था उसी . तरह शाद्धल्प
समुद्र को सथ कर गीतामृत निकाला गया है । इसी लिए पहले
आदमी कह गये हैं--
गीत सुगीता कर्त्या किमन्यैः शाखविर्रैः।
गीता को ही ,खूब भ्ध्ययन करना चाहिए । श्रौर बहुत से
'शाखों से क्या सतलतव है ।
गीता की सब से बड़ी विशेषता उसकी सार्वभौमता है । गीता
मे साम्प्दायिकता या सङ्की्ता का रश भी नहीं है । इसी लिए
सव सम्प्रदाय के आदमी शरीर सव श्रेणियों फ दाशनिक उसको
समान श्रादर की दृष्टि से देखते हैं । गीता विश्वता-मुख ग्रन्थ है।
क्या कर्म्मी, क्या ज्ञानी, क्या योगी रे क्या भक्त सब के लिए
गीता एकसा उपादेय ग्रन्थ है। . ` ` र
इसका प्रधान कारण उस की व्यञ्जना ( ऽ ए268ए61655ं
शक्ति है। गीता में सब तरह के सलों के सार मौजूद. हैं । गीरा
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