गीता में ईश्वरवाद | Geeta Mein Ishwarwad

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Geeta Mein Ishwarwad by ज्वालादत्त शर्मा - Jwaladutt Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ग्रत्थकार को भूमिका । गीता वड़ा ही ग्रपच परन्ध है । संसार के साहिय मे एसा उपादेय शरीर उत्छृ्ट दूसर मन्ध नहीं है । गीता हत वड़ा भ्रन्य नहीं है । उसमें सिफ़ सात सौ रोक हैं । पर फिर भी उसमे सव धम्मो का सार ३, सब शालो क सार का भी सार है। जिस तरह समुद्र को मध कर अमृत निकाला गया था उसी . तरह शाद्धल्प समुद्र को सथ कर गीतामृत निकाला गया है । इसी लिए पहले आदमी कह गये हैं-- गीत सुगीता कर्त्या किमन्यैः शाखविर्रैः। गीता को ही ,खूब भ्ध्ययन करना चाहिए । श्रौर बहुत से 'शाखों से क्या सतलतव है । गीता की सब से बड़ी विशेषता उसकी सार्वभौमता है । गीता मे साम्प्दायिकता या सङ्की्ता का रश भी नहीं है । इसी लिए सव सम्प्रदाय के आदमी शरीर सव श्रेणियों फ दाशनिक उसको समान श्रादर की दृष्टि से देखते हैं । गीता विश्वता-मुख ग्रन्थ है। क्या कर्म्मी, क्या ज्ञानी, क्या योगी रे क्‍या भक्त सब के लिए गीता एकसा उपादेय ग्रन्थ है। . ` ` र इसका प्रधान कारण उस की व्यञ्जना ( ऽ ए268ए61655ं शक्ति है। गीता में सब तरह के सलों के सार मौजूद. हैं । गीरा 9 $ ( क = न~ ^~ ~




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