पंचास्तिकाय समयसार | Panchastikaya-samaysaar
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
216
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)समयसार |
कोक-विभाव अभाव किए जिन, चेतनरूप सदा इक॑ जात्या।
जाति विजाति दोऊ इक ठौर; विरोध-विनासक सासन मान्या ॥
स्याद सुवाद जयथावत जानि, किया समभाव सुभाव भरमान्या ॥
सो $ुदङंद अचारजरूप, अनूपम पंचमकार वखान्या॥ ८ ॥
दोहा ।
कुंदकुंद मुनिराजने, करी मगट जिनवानि ।
गाधार्राचत सुदावनी, सकल अरथकी खानि ॥ ९॥।
सार नाम वहुते किए, गाथा ग्य वखान ।
समयसार नाटक चयी, सवम मर प्रधान ॥ १०॥
पंचासतिकाया प्रगट, तिनमरहि प्रकरन एक ।
ताकी कटु भाषा करहु, निजभापा-अभिपेक ॥ ११ ॥
सोरठा ।
निजमापाअभिपेक, अमृतर्च॑द् जसा कहा ।
तेपे सकर विवेक, कोकभाषमे कहत रौ ॥ १२॥
दोदा ।
इकासी अर सो अधिक, यहु सव माथा मान ।
श्रुतसकंध है तीन तिहिं; गहरा बहुत घखान ॥ १३॥
प्रथम अस्तिकाया कथन, छहों दरच अधिकार ।
. दुतिय पदारथ तंत्वविधि, दृतिय मोखबिस्तार ॥ १४ ॥
समय नाम अधिकार है, जिनवानीमें सार ।
ताकों सकल. वख़ान यहु; ग्यानवढ़ावनहार ॥ १५॥
-ई
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