पंचास्तिकाय समयसार | Panchastikaya-samaysaar

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Panchastikaya-samaysaar by हीरानन्दजी - Heeranand ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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समयसार | कोक-विभाव अभाव किए जिन, चेतनरूप सदा इक॑ जात्या। जाति विजाति दोऊ इक ठौर; विरोध-विनासक सासन मान्या ॥ स्याद सुवाद जयथावत जानि, किया समभाव सुभाव भरमान्या ॥ सो $ुदङंद अचारजरूप, अनूपम पंचमकार वखान्या॥ ८ ॥ दोहा । कुंदकुंद मुनिराजने, करी मगट जिनवानि । गाधार्राचत सुदावनी, सकल अरथकी खानि ॥ ९॥। सार नाम वहुते किए, गाथा ग्य वखान । समयसार नाटक चयी, सवम मर प्रधान ॥ १०॥ पंचासतिकाया प्रगट, तिनमरहि प्रकरन एक । ताकी कटु भाषा करहु, निजभापा-अभिपेक ॥ ११ ॥ सोरठा । निजमापाअभिपेक, अमृतर्च॑द्‌ जसा कहा । तेपे सकर विवेक, कोकभाषमे कहत रौ ॥ १२॥ दोदा । इकासी अर सो अधिक, यहु सव माथा मान । श्रुतसकंध है तीन तिहिं; गहरा बहुत घखान ॥ १३॥ प्रथम अस्तिकाया कथन, छहों दरच अधिकार । . दुतिय पदारथ तंत्वविधि, दृतिय मोखबिस्तार ॥ १४ ॥ समय नाम अधिकार है, जिनवानीमें सार । ताकों सकल. वख़ान यहु; ग्यानवढ़ावनहार ॥ १५॥ -ई




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