जैनपदसंग्रह [भाग-४] | Jainpadsangrah [Bhag-4]
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
170
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)चतुधंमाग ! ५
च,
फटकं । जिन नाम० ॥ ३ ॥ चयानत उत्तम भजन है,
जै मन रटकै ! भव भवके पातक रवै, जे हैं तो
कटके ॥ जिन् नाम०॥ ४ ॥
८। राग-काफी |
तू जिनयर खामी मेरा, में सेवक प्रभु हों तेरा
॥ रेक ॥ तुम 'सुपस्न विन में बह कीना, नाना जोनि
चसेरा। भाग उदय तुम दरसन पायो, पाप भज्यों त-
जि खेरा ॥ तू जिनवर० ॥ १ ॥ तुम देवाधिदेव पर-
मेसुर; दीजें दान सचेरा । जो तुम मोख देत नि
हसको, कहाँ जायें किंहि डेरा ॥ २ ॥ मात तात तृदी
वड् भ्राता, तोसौं प्रेम घनेरा द्यानत तार निकार
जगतत, फेर न है भवफेरा ॥ तू जिनवर० ॥ ३॥
९ | राग-काफी घमाठ ।
सो जाता मेरे सन माना, जिन निज-निज, पर-
पर जाना ॥ टेक ॥ छहों दरवतें सिन्न जानके, नव.
तत्वनितें आना । ताका देखे ताका जाने, तादीक
रसमें साना ॥ सो न्ञाता० ॥ १॥ कम झुभाशुभ जो
आवत हैं, सो तो पर पहिचाना । तीन भवनकों राज
न चाहे, यद्यपि याँठ दरव बुना ॥ सो ज्ञाता०
-1 २॥ अंखय अनन्ती सम्पति विठसे, मव-तन-भोग-
२ अश्षय |
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