जैनपदसंग्रह [भाग-४] | Jainpadsangrah [Bhag-4]

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Jainpadsangrah [Bhag-4] by कविवर छानतरायजी - Kavivar Chantrayji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चतुधंमाग ! ५ च, फटकं । जिन नाम० ॥ ३ ॥ चयानत उत्तम भजन है, जै मन रटकै ! भव भवके पातक रवै, जे हैं तो कटके ॥ जिन्‌ नाम०॥ ४ ॥ ८। राग-काफी | तू जिनयर खामी मेरा, में सेवक प्रभु हों तेरा ॥ रेक ॥ तुम 'सुपस्न विन में बह कीना, नाना जोनि चसेरा। भाग उदय तुम दरसन पायो, पाप भज्यों त- जि खेरा ॥ तू जिनवर० ॥ १ ॥ तुम देवाधिदेव पर- मेसुर; दीजें दान सचेरा । जो तुम मोख देत नि हसको, कहाँ जायें किंहि डेरा ॥ २ ॥ मात तात तृदी वड्‌ भ्राता, तोसौं प्रेम घनेरा द्यानत तार निकार जगतत, फेर न है भवफेरा ॥ तू जिनवर० ॥ ३॥ ९ | राग-काफी घमाठ । सो जाता मेरे सन माना, जिन निज-निज, पर- पर जाना ॥ टेक ॥ छहों दरवतें सिन्न जानके, नव. तत्वनितें आना । ताका देखे ताका जाने, तादीक रसमें साना ॥ सो न्ञाता० ॥ १॥ कम झुभाशुभ जो आवत हैं, सो तो पर पहिचाना । तीन भवनकों राज न चाहे, यद्यपि याँठ दरव बुना ॥ सो ज्ञाता० -1 २॥ अंखय अनन्ती सम्पति विठसे, मव-तन-भोग- २ अश्षय | 1




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