प्रवचनसार | Pravachansaar
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
254
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)थ्यः
विर 1 १
पीठिका [९ ॥
कवित्त ।
या प्रकार गुरुपरम्परातें, मह दुतीय सिद्धान्त प्रमान |
शुद्ध सुनयके उपदेशक ईत, श्च, ॒षरिराजत है परधान ॥
समयसार पंचास्तिकाय श्री, प्रबचनसार आदि युपहान ।
कुन्दकुन्दगुर मूर वखाने, टीका अमृतचन्द्रकृत जान ॥ ५६ ॥
कवि प्रार्थना 1
तामे प्रवचनसारकी, वाचि वचनिका मजु ।
छन्दखूप रचना र्चो, उर॒ धरि गुरुषदक्ंजु ॥ ५७ ॥
५
~~ कक -
कहूँ परमागम अगम यह, कहूँ मम मति भतिहीन ।
शद्शि सपरशके हेतु जिमि, शिशु कर उऊंचौ कीन ॥ ५८ ॥
तिमि मम निरख सुधीरता, हँँसि कहिदेँं परवीन ।
काक चहत पिक-मधुर-धुनि, मूक चहत कवि कीन ॥ ५९ ॥
चौपाई 1
यह् परमागम अगम वताई । मो मति अस्प रचत कविताई ।
सो ल्ख हसि कटि मति धीरा । रिरिप सुमन करि वेधत दीरा ॥ ६०॥
दोहा )
वार मरार चै जथा, मन्दिर मेह उटाव ।
बाख्छुद्धि भवि वृन्द तिमि; करन चहत कविताव ॥ ६१.॥ `
पूख यश्व सदहायतं, जिनशासनकी छाँहिं ।
हूं यद साहस कीन दै, सुमरि गुरु मानमांहिं ॥ ६२ ॥
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