आचार्य कुन्दकुन्द और अष्टपाहुड़ | Aacharya Kundakund Aur Ashtapahud

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ग्राचायं देवसेन, जयसेन एवं भट्टारक शरूतसागर जैसे दिग्गज श्राचार्यो एवं विद्वानों के सहस्राधिक वषं प्राचीन उल्लेखो एवं उससे भी प्राचीन प्रचलित कथाओं की उपेक्षा सम्भव नहीं है, विवेक सम्मत भी नहीं कही जा सकती । अतः उक्त उल्लेखों शौर कथाओं के आधार पर यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि आचायें कुन्दकुन्द दिगम्बर झाचायें परम्परा के चुड़ामशि हैं । वे विगत दो हजार वर्षों में हुए दिगम्बर भ्राचार्यो, सन्तो, ्रात्मार्थी विद्वानों एवं आध्यात्मिक साधकों के श्रादर्श रहे है, मागेदशेक रहे हैं, भगवान महावीर श्रौर गौतम गणधर के समान प्रातःस्मरणीय रहें हैं, कलिकाल स्वेज्ञ के रूप में स्मरण किये जाते रहे हैं । उन्होने इसी भव मे सदेह विदेहक्षेत्र जाकर सीमंघर झरहन्त परमात्मा के दर्शन किए थे, उनकी दिव्यध्वनि का साक्षात्‌ श्रवण किया था, उन्हें चारणऋद्धि प्राप्त थी । तभी तो कविवर वृन्दावनदास को कहना पड़ा :- “हुए हैं, न होहिंगे; मुनिन्द कुल्दकुत्द से ।' विगत दो हजार वर्षों में कुन्दकुन्द जैसे प्रतिभाशाली, प्रभावशाली, पीढ़ियों तक प्रकाश विखेरनेवाले समयें आराचायें न तो हुए ही हैं और पंचम काल के झन्त तक होने की संभावना भी नहीं है ।”” भगवान महावीर की उपलब्ध प्रामाणिक श्रुतपरम्परा में आचायें कुन्दकुन्द के अद्वितीय योगदान की सम्यक्‌ जानकारी के लिए पुर्वेपरम्परा का सिंहावलोकन अत्यन्त आवश्यक है । समयसार के झराद्य भाषाटीकाकार पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा समयसार की उत्पत्ति का सम्बन्ध बताते हुए लिखते हैं :- “यह श्री कुन्दकुन्दाचायेंदेव कृत गाथाबद्ध समयसार नामक ग्रन्थ है । उसकी आत्मख्याति नामक श्री अमृतचन्द्राचायेंदेव कृत संस्कृत टीका है । इस ग्रंथ की उत्पत्ति का सम्बन्ध इसप्रकारहै कि अन्तिमि तोर्थकरदेव सर्वज्ञ वीतराग परम भदटरारक श्री वर्धमानस्वामी के निर्वा जाने के बाद पाँच श्रुतकेवली हुए, उनमें अन्तिम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहुस्वामी हुए । वहाँ तक तो द्वादशांग शास्त्र के प्ररूपणा से व्यवहार-निश्चयात्सक सोक्षमागं यथा प्रवर्तेता रहा, बाद में काल-दोष से अंगों के ज्ञान को व्युच्छित्ति होती गई और कितने ही मुनि शिथिलाचारी हए, जिनमे श्वेताम्बर हुए; उन्होने शिथिलाचार पोषण १ प्रवचनसारः परमागम (प्रवचनसार छन्दानुवाद) ( १५ )




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