मेरी हिमाकत | Mari Himakat

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Mari Himakat by वियोगी हरि - Viyogi Hari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कवि से ७ रहा हो, तुम एक-दो कविताएँ तो उसे रास्ते चलते-चलते भी सुना देते हो। कोई भी काल हो, कोई भी स्थान दो--यदि वह रसिक है तो,उसे ठुम कविता सुनाये बग़ेर छोड़ नददीं सकते । तुम्हारे प्रशंसक भी प्रशंसा के पात्र हैं, जो तुम्हारी कविताओं से ऐसे-ऐसे गूढ़ श्रथ निकाल लेते हैं, जिनकी शायद तुम्हें भी कभी कल्पना न हुई हो । ठम्हारे नम श्दज्लार में वे कभी श्रध्यात्म का दशंन करते है, श्रौर कभी क्रोध, देष दौर श्रदंकार के उद्दी- पन में स्वदेश-प्रेम का | तुम्हें आश्चय होना ही चाहिए, जब तुम देखते हो कि जन- साधारण में ऐसी कविताएँ: भी बड़े प्रेम से सुनी श्रौर गायी जाती हैं, जिनमें न तो कोई श्रनोता भाव होता है, न झ्जीब-जीब उक्तया; न श्रलंकारपूणं सुन्दर भाषा ही । श्र जिनमें व्याकरण तक की टाँग टूटी होती हैं; छन्द:-शाख््र का भी ठीक-ठीक पालन नदीं होता । संतोष इतना ही है कि ऐसी भट्दी चीज़ों श्र्थात्‌ लोक-यीतों दौर संत-वाणी ने ग्रामीण जनता में दी श्रधिक श्रादर पाया है । इन कविताओं ने ज्यादातर देहात के अनपढ़ लोगों को ही विमोह्ति किया है । कवि, ऐसे लोगों की अरसिकता को देखकर 'तु्म्हें मन में हँसी तो ्राती होगी, जो उन साखियों श्ौर सबदों के श्रट्पटे साँचे में ग्रपना सुन्दर जीवन टालना चाहते हैं । मन में तुम कहते होगे कि विधाता ने उन ग्रामीणों को रस, कला ्ौर सौन्दर्य परखने की श्रक्ल क्यों नहीं दी! | पर ऐसी बात नहीं है कि तुम रुप होकर ग्राम्य जनता के जीवन को उपेक्षा को दृष्टि से देखते हो । नहीं, कभी-कभी तुम्हारी




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