गोस्वामी तुलसीदास की दृष्टि में नारी और मानव जीवन में उसका महत्त्व | Goswami Tulsidas Ki Drishti Mein Nari Aur Manav Jivan Me Uska Mahtav

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Goswami Tulsidas Ki Drishti Mein Nari Aur Manav Jivan Me Uska Mahtav by ज्ञानवती त्रिवेदी - Gyanvati Trivedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १५ ) वास्तविक अर्थ क्या है और जीवन में उसका व्यवहार और निर्वाह किस रूप में होना चाहिए इसका पाठ पढ़ाने के लिए उन्होने “मानस' मे नारी के अध्या स्मिक और लौकिक रूप की प्रतिष्ठा की । 'जेहि महूँ आदि मध्य अवसाना । प्रभु प्रतिपाद्य राम भगवाना ॥” ढारा राम के स्वरूप का प्रतिपादन 'मानमं का लध्ष्स घोषित किया गया था । अतः राम के स्वरूप-प्रतिपादन के साथ उनकी अभिन्न दाक्ति साया का स्वरूप- प्रतिपादन उसमें असिदार्य रूप से समाविष्ट हुआ और यह हुआ नारी के आध्यात्मिक रूप का सिरूपण । “माया रूपी नारी की को घोषणा राम के द्वारा हुई भोर जिसका समर्थन उनके अनन्य सक्त काकमुशुंडि ने नारि बिश्व माया प्रकट कहकर किया उसे उनके अनन्य सेवक तुलसीदास ने उनके ही चरित मे चरितां करफे प्रभाणित्त कर दिया । राम के लौकिक भरित के अतर्गत्त नारी के भी विविध लौकिक रूपों का चित्रण कर यह स्पष्ट कर दिया गया कि वह किस प्रकार माता, पत्रो, बहन मौर पत्नी एवं अन्य रूपों में श्रद्धा आर आदर की अधिकारिणी है, और अपने स्नेह भौर ममता से मानव को सत्पय पर अग्रसर कर सकती है ! उसका अवलम्ब जीवन का वहु अवलम्ब है निके सहारे केन लोक-यात्रा हो सफलता से पूर्ण नही होती, परलोक- साथना और परम लक्ष्य की प्राप्ति भी सभव हो सकती है। इसे अनेक आख्यानों, प्रसंगों, विभिन्न पात्रों एवं उक्तियों द्वारा भाँति-भाँति से स्पष्ट कर दिया गया हूँ। नारी के शरीर ओौर उसकी अन्तरात्मा का वह प्रकाश क्या हैं और कैसे प्राप्त होता है, जिससे मोहान्थकार दूर होता और जडइता से मुक्त हो चेतन का अनुभव कर सत्‌ ओर आनन्द की प्राप्ति की जाती है, यह भी “दीपशिखां के आलोक में प्रत्यक्ष कर दिया गया है। ब्रहाँ पुरुष के लिए यह भी सकते कर दिया गया है कि नारी की कामना बरीर-सुख की वासना से न कर शुद्ध सात्विक भावना से करो तो उसी में तुम उस मातुशक्तिको प्राप्त कर लोगें जिसके एक अंशकी आभा बाहर प्रस्फुटित होकर तुम्हे अपनी ओर आकृष्ट कररही है। नारी भी' उसी प्रकार परम दाकि का एक रूप हैं जिस प्रकार तुम हो । तुम भी सच्चिदानन्द के अंश हो और वह भी । अब चाहें उसके रूप में अपने शुद्ध-प्रबुद्ध रूप को देखो अथवा अपने रूप से उसे देखो, दोनों १ मानस, सर ६०६ ।




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