आविष्कार-विज्ञान | Avishkar-Vigyan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पहला अध्याय अन्तजगत्‌ जगत्‌ दो दै-८१) बहिजगत्‌ ओर (२) अरन्तजगत्‌ । वहिजगत वह है जिसका अनुभव हम इन्द्रियों द्वारा करते हैं; ओर अन्तजगन्‌ वह है जिसका अनुभव हमें केवल मन द्वारा ही होता है अथात्‌ अन्तजगत्‌ इन्द्रियातीत है । इन दोनों जगत म बड़ा सारस्य ओर धनिष्ठ सम्बन्ध है । यह सहशता इतनी बढ़ गई है कि कई विद्वानों को एक का বুপই ম সন हुआ है । कई अंशों में समानता रखते हुए भी थ एक दूसरे से भिन्न हैं | अन्तजंगत्‌ मनोमय है ओर बहिजेगत्‌ भौतिक । जसे इनके उपादान एक नहीं वेसे-ही इनके नियमों मे भी भेद है। इसी कारण दोनों प्रथक २ माने गये हैं; और दोनों की सीमा इतनी निर्धारित है कि एक का दूसरे से पार्थक्य बिल - कुल स्पष्ट प्रतीत होता है । यह कहा जा चुका है कि इन दोनों जगतों में बड़ी सह- शता है | इसी कारण एक को समझ लेने से दूसरा भी समझ में आजाता है | हम सब ने इस बहिजंगत्‌ को देखा है । इसके उपादान कारण को प्रकृति ओर रचयिता को पुरुष कहते हैं । परमात्मा ने प्रकृति द्वारा इस विद्व की रचना की है । न केवर प्रकृति से द्वी यह विशारू विश्व बन सकता है, ओर न कवर परमात्मा ही बिना प्रकृति के इसे रच सकता है । पहले में




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