वैदिक धर्म | Vaidik Dharm

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वैदिक ' कलयबनयलव्यवटटन्ट विनय शत न दि प्राचीन कोलमें एक महान क्षि फणादि नामक हो गथ हे । 4 चनाया वदोपरिफ दुर्दान चहुत प्रसिद्ध मन्ध हं। उसमें उन्होंने धमकी परिभाषा फरते हुए लिखा दे द-- यतोशभ्युद्यनि/श्रेयससिद्धि! स धर्म! सर्थानू जिससे इस लोक मोर परलोक दोनोंमें सुख मिले, उसे धरम फहते हैं। इससे प्रतोत होता है कि वे समस्त झाभ कर्म, जिनसे हमें अथवा दूसरोंफों चास्तथिफ्र सुख मिलता हैं, धमकी परिभापषाके भीतर था जाते हैं । वास्तविक सुखका तात्पर्य है, उस सुखसे, जो क्षणिक इन्द्रिय-वासनामांका श्द्दीपफ न हो । दूसरेकी वस्तु घुरा लेने अथवा मिध्या बोलफर किसीको धोखा दे देनेसे भी कुछ काल के लिये मनुष्यफो सुख होता है. किन्तु च्द॒सुख वास्तविक नहीं द्ोता । बह तो उस 'पयोमुख विपकुम्भ'फे समान है जो ऊपरसे अच्छा एवं स्वादिष्ट माठम होता है किन्तु वस्तुनः प्राणनाश करता है। इसी लिये चिद्वानोंने उक्त परिभाषपाका अनेक व्याख्याओं द्वारा स्पष्ट मथ कर दिया है। श्रीमनु महाराजने तो इस प्रकोरके कर्मोका वर्गी- करण तक कर दिया हैं । उन्होंने छिखा है :-- धतिः क्षमा दमाउ्स्तेय॑ शाचमिन्द्रियनिग्रह। धीर्विद्या सत्पमक्रोंधी दशक धर्म-सक्षणम ॥। श थे




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