जैन धर्म शिक्षावली भाग - 5 | Jain Dharm Shikshavali Bhag - 5

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तृष्णा संसार वक्ष का बीज है । है निगोद से निकलने पर वह्‌ जीव पृथ्वी काय, जल काय, श्रग्नि काय, वायु काय গ্সীহ वनस्पति काय, इन स्थावर पर्यायों को धारण करता है । एकेन्द्रिय जीवों के श्रकथनिय कष्ट है-जरा उन पर गौर कीजिये । मिट्टी को खोदते हैं, रोदते हैं, जलाते हैं, कटते हैं, उस पर अग्नि जलाते हैं, धूप को ताप से प्रथ्वी कायिक जीव मर जाते हैं । एक चने के दाने बराबर सचित मिट्टी में श्रनगिनत प्रथ्वी कायिक जीव होते हैं-कटने पीसने रोंदने श्रादि से इन सबको महान कष्ट होता है, पराधोनपने से सब सहने पड़ते हें, बचाव वे कर नहीं सकते, कहीं भाग नहीं सकते, श्रसमर्थ हैं। सचित जल को गमं करने,मसलने, रोदने श्रादि से महान कष्ट जल कायिक जीवों को उसौीप्रकार होता है जसे पृथ्वी कायिक जीवों को। जल-कायिक जीव का शरोर भी बहुत छोटा होता है पानी की एक बू द में श्रनगिनत जल- कायिक जीव होते हैं । वापु-कायिक जीव भीतादि की टक्करों से, गर्मो के झोंकों से, जल की तीव वृष्टि से, पंखों से, हमारे दौड़ने कदने से टकराकर बड़ कष्ट से मरते हैं। इनका शरीर बहुत सृक्ष्म होता है, एक हवा के भके में श्रनगिनती वायु-कायिक जीव होते हैं । जलतो हुई अग्नि पर पानी डालकर बुभाने से मिट्टी डः.लकर बुभाने में, तथा लाल तपते हुए लोहे




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