सरस्वती सिरीज | Saraswati Series

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Saraswati Series by शिवसेवक शर्मा - Shivsevak Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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स्विटज़रलड-यात्रा “रात सुहावनी थी। ऊँचे ऊँचे पवतों के पीछे टिमटिमाते हुए तारों के बीच में चाँद मुसका रहा था। लुगाना भील का जल शांत था और चाँदी की चादर के समान फेला हुआ था जिस पर अनेक अनजान, अदृष्ट, प्रकाश-रेखायं आ-आकर टक- राती थीं । रेल के डिब्बे में सब लोग सा रहे थे । केवल में साच रहा था। उस दिन मेरे मन में कौन-कोन-से विचार उठे जिनसे मेरे जीवन के दो भाग हो गये--यह मुमे याद नहीं । केवल प्रातः- काल का जब हम लोगों ने जमैन स्विटज़रलेंड का पार कर लिया, ओर नवम्बर की वर्षा ने हम-स तिरस्कृत मनुष्य की भाँति बिदा ली, तब मुभे गहरी वेदना के साथ इटली के हरे-भरे मैदान याद आये जिनके सूयय की किरणें चूमती थीं।” एक यात्री बोल रहा है। वह भावुक है; विदेश में जाते समय स्वदेश-जीवन के रंगीन चित्र उसके मानस-क्षितिज में टकराते हैं और वेदना की एक गहरी छाया उसके हृदय पर छोड़ जाते है । केवल दो शिलिङ्ग जेब में डाले हुए उन्नीस वर्ष की अवस्था में मुसालिनी स्विटज़रलेंड जा रहा है; तारीख £ जुलाई, सन्‌ १६०२ इ० का । भूखा, ठंडा और सिकुड़ा हुआ मुसालिनी न्यूचैटिल कील के किनारे वडन स्टेशन पर गाड़ी स उतरा । वह नौकरी की तलाश में चल पड़ा । ८




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