भारतीय संस्कृति का विकास | Bhartiya Sanskriti Ka Vikas

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Bhartiya Sanskriti Ka Vikas  by मङ्गलदेव शास्त्री - Mangaldev Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ५ | को पूर्वापर परिस्थितियों से असंबद्ध तथा असंपक्‍त अथवा आकस्मिक घटना के रूपम ही देखते हुं । परन्तु वास्तव मं महान्‌ श्रान्दोलनों , एतिहासिक घटनाश्रों ग्रौर श्रवतारी महापुरुषों की पूवेवर्ती ग्रौर परवर्ती परिस्थितियों मं कायेकारण- भाव की परम्परा रहती है। वेज्ञानिक पद्धति का कतंव्य है कि वह उसका पता लगाए ओर उसका निरूपण करे । किसी भी इतिहास के समान ही , भारतीय संस्कृति का इतिहास भी इसी प्रकार की कार्यकारण-भाव की परम्पराओं से निर्मित है | वंज्ञानिक पद्धति के अवलम्बन से ही हम उन परम्पराओं का अव्ययन कर सकते हे । भारतीय संस्क्रति के लम्बे इतिहास में काल-भेद से विभिन्न स्तरों का पाया जाना स्वाभाविक है । हमारा कतंव्य है कि हम, न केवल उनके परस्पर सम्बन्ध का ही , किन्तु प्रत्यक स्तर की पूर्वावस्था और अनन्तरावस्था का भी, उन-उन त्रुटियों कामी , जिनके कारण एक स्तर कै पश्चात अगले स्तर का ग्राना भ्रावरयक होता गया , पता लगावे। इसी प्रकार एक धारावाहिक जीवित परम्परा के रूप में भारतीय संस्कृति को हम समझ सकते हूँ । उपय्‌ क्‍त प्रकार के अध्ययन के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि भारतीय संस्कृति के विभिन्न कालों के साथ हमारी न केवल ममत्व की या तादात्म्य कौ ही भावना हो , किन्तु सहानूभूति भी हो । वज्ञानिक पद्धति के इन्हीं मौलिक सिद्धान्तों का अनुसरण करते हुए हम भारतीय मसंस्क्ृति की विभिन्न धाराओं का और उसकी लम्बी परम्परा का ग्रध्ययन प्रक्रत ग्रन्थ मं करना चाहते ह । विषय-निदंद ऊपर हमन भारतीय संस्कृति कौ विभिन्न धाराग्रों का उल्लेख किया है । इसका अभिप्राय यही है कि चिरन्तल काल से अविच्छिन्न प्रवाह के रूप में आनेवाली भारतोय संस्कृति की धारा में, भगवती गंगा की धारा में मिलनेवाली सहायक नदियों की धाराझ्रों के समान, तत्तत्कालीन विशिष्ट परिस्थितियों और आवश्यकताओं से उत्पन्न होनेवाली नवीन सांस्कृतिक उपधाराओं का समावेश होता रहाहै । वे उपधाराए मूलधारा मं भ्रपृथक्‌-रूप से मिलकर एक होती रही हे । उन्होंने सतत-प्रगति-शील मूलधारा के साथ विरोध-भाव न रखकर, पूरकता के रूप म॑ उसको समद्ध ही बनाया है ।




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