बिल्लेसुर बकरिहा | Billesur Bakriha

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Billesur Bakriha  by पं. सूर्य्यकान्त त्रिपाठी - Pt. Suryakanti Tripathi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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= रहते थे। दो-तीन गायें पाल रक्‍खी थीं। स्री 'शिखरिदशना' थीं यानी सामने के दो दांत आवश्यकता से अधिक बड़े थे। होठों से कोशिश करने पर भी न बन्द होते थे। पेक्र के सुकुल । कनवजियापन में विल्‍्लेखुर से बहुत बड़े । फलतः विस्लखुर को यां सव तरह अपनी रक्षा देख पड़ी | विरल्ञेसुर सत्तीदीन के यहां रहन लगे । पसी दालत में गरीव की तदज्ीव जेसी, दबे पांव, पेट खलाये, रीड भुकाये, आंखें नीची किये मातं जातं रे । उठतं जोवन मे सत्तीदीन की स्त्री को एक सुहलानवाला मिला। दो-तीन दिन तक भोजन न खला | एक दिन ओरत वाले कोठे जी गया। नक्की सुरों में बोलीं, “में कहती हूँ, बिल्लेसुर, तुम तो आ ही गये हो, ओर अभी हो ही, इस चरवाहे को विदा क्‍यों न कर दूं ? हराम का पेसा खाता है। कोई काम है ? घास खड़ी है, दो बोक काट लानी है ; नहीं, पेरे की बँधी मूर्ठे हैं-- यहाँ वहाँ का जेसा धान का पेरा नहीं--बड़ा बड़ा कतर देता है ओर थोड़ी सी सानी कर देनी हे ; देश में जेसे डंडा लिये यहाँ ढोरों के पीछे नहीं पड़ा रहना पड़ता, लम्बी लम्बी रस्प्तियाँ हैं, तीन गाये हैं, घास खड़ी है, बस ले गये ओर खटा गाड़कर बाँध दिया, गाये चरती रहीं, शाम को बाबू की तरह टहलते हुए गये ओर ले आये, दूध दुह्ठ लिया रात को भच्छुड़ लगते हैं, गीले पेरे का धुवाँ दे दिया; कहने में तो दर भी लगी ।' कहकर सतक्तीदीन की स्त्री ने कनपटी घुमाई ओर दोनों होंठ सटाने शुरू किये। विस्लेखुर चोकश्ने । दोर चरने के लिये समन्दर पार नहीं किया । यह काम गाँव में भी था । लेकिन परदेश दे, अपना कोई नहीं । दूसरे के सहारे पार लगना है । सोचा,




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