भारवर्ष में जातिभेद | Bharatavarsh Men Jatibhed

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Bharatavarsh Men Jatibhed by क्षितिमोहन सेन - Kshitimohan Sen

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जातिभेद का परिचय गुण-कम के द्वारा निश्चित हाँ, जन्म से नहीं | वेद के श्रधिकार से कोई भी वर्ण वंचित न हो ।”? महात्मा गांधी श्रस्पृश्यता के तो विरोधी ह, किन्तु वर्णाश्रम ध्यवस्था के विरोधी नहीं हैं श्रीमती ल्मी नरस्‌ ने महात्मा जी का निम्न लिखित वाक्य, डउद्धत किया है-- वर्णाश्रम मनुष्य के स्वभाव में निहित है; हिन्दू-धर्म ने उसे ही वज्ञानिक रूप में प्रतिष्ठित किया है | जन्म से वण निर्णीत होता है, इच्छा करके कोई इसे बदल नहीं सकता ।?? इस प्रकार देखा गया कि यह वणभेद जन्मगत है | बाह्मण से ब्राह्मण, क्षत्रिय से क्षत्रिय, वश्य से वेश्य और शूद्ध से शूव्‌ उत्पन्न होता है । अब इस भेद का मूल कहाँ हे ? साधारणतः लोग ऋग्वेद के पुरुष-सूक्त ( १० म मंडल, ६० सूक्त ) को ही इस वर्णंभेद का मूल सममते हैं । वहाँ कहा गया है-- डस प्रजापति के मुख बाह्मण, बाहू क्षत्रिय, उरु बेश्य थे, ओर पदा से शरूद्र उत्पन्न हए ।› इसमे देखा जाता है कि जाति को लेकर ही मनुष्य की सृष्टि हुई । ऋणग्वद में ब्राह्मण शब्द्‌ु कम ही आ्राया हे । जहाँ आया है व ज्ञानी या पुरोहित के श्चर्थं में व्यवहृत हुआ है । स्त्रिय शब्द्‌ का उल्लेख भी बहुत ज्यादा नहीं है ओर वेश्य तथा शूदर कातो एक मात्र उटलख पुरुष-सूक्त के इस मंत्र में ही है । ऐतिहासिक पंडितों के मत से ऋग्वेद का दसवाँ मंडल श्रपेत्षाकृत अर्वाचीन या आधुनिक है | इसमें भी केवल चार वर्णा का ही उल्लेख ই । इससे हमारे देश की श्रसंखय जातियों की मीमांखा केस हो सकती है ! मुँह से हम चार वणं कते रहें तो क्या हाता है । मदु मशमारी 3 0 9৮0৫ 01 08969) 7. 131 २ ब्राह्मणोऽस्य मुखमासोद्राहू राजन्यः कृतः । ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पदभ्यां शुद्धो अजायत ॥१२॥ -- ७ ---




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