यों भी तो देखिए | Yon Bhi To Dekhie

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कवि से ] | ३ कहीं दूषित न हो जाये । जगत्‌ के सामान्य प्रश्नों से तुम्हें कोई प्रयोजन नहीं; तुम्हारी कवि- सतह से वे प्रश्न बहुत नीचे हें; उन्हें छने का निरथंक प्रयास करना कवि का कर्म नहीं । तुम्हारा काव्य-मानव' या “भ्रति मानव तो खालिस कल्पनाश्रों का उड़न पुतला है। शौर कल्पनाएँ भी वे कंसीं ? पारद की तरह तरल, शश-शु ग की भाँति अलौकिक । विकास्-दून्य उस पुराकाल मं तब कदाचित्‌ यह्‌ शोध हुई होगी, कि जिसकी वाणी से चारित्य परिलुद्धहोताहो, उसे ही कवि माना जाये । तुम्हारे मत से तो यह व्याख्या और चाहे जिसकी हो, कितु कवि की तो हो ही नहीं सकतीं । कारण, वह अपने कल्पित मानव में जब एक भी अशुद्धि नहीं देखता, तब उसे स्वकीय सृष्टि के मानव के चारिश्य- रोधन की आवश्यकता ही क्‍या ? तुम्हारा कामतो मनोविकारोंको उत्तेजित करदेना मात्र है । तुम्हे पसन्द नहीं कि मनोविकार यही सोते रहँ या शिथिल पड़ रहँ । उनको तो तुम सतत जाग्रत श्रौर सक्रिय ही रखना चाहते हो । লী श्ब्द-रदिमयों से कभी तो तुम कामवृत्ति को सतेज कर देते हो, कभी लोभ-वृत्ति को और कभी क्रोध-वृत्ति को । तुम्हारी दृष्टि में शायद विका रोत्तेजन का ही नाम रस-परिपाक है । मानना पड़ेगा कि तुम सोये हुए को जगा देते हो और जागे हुए को सुला देते हो । तुम्हारी ये दोनों ही प्रक्रियाएँ मनोरम हें और भयंकर भी । तुम्हारे काव्य-जगत्‌ मे पहुंचकर मनुष्य कंसा श्राकुल हो उठता है । अस्वाभाविक गति से हृदय उसका धड़कने लग जाता है। श्राँखों से या तो चिनगारियाँ छटने लगती हें, या उनपर खुमारी छा जाती है, या फिर उनसे पानी बहने लग जाता है। तुम उसकी केसी सुन्दर प्रवस्था कर देते हो, कवि ! तुम्हारी कवि-दृष्टि में ऐसा उत्तेजित, विक्षिप्त, श्रस्वस्थ मनृष्य ही “रसिक' कहा जाता है। ऐसा रसिक प्राणी तुम्हें श्रतिशय प्रिय होता है।




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