जैन योग ग्रन्थ चतुष्टय | Jain Yog Granth Chatustha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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1ग्ादकीय ऊर्ध्वगमन आत्मा एय हूय स्वभाव दै, पृमोदि मात्मा वस्तुतः परमात्मा यय ही आवून या आच्छम्ल रुप है, वेदान्त की भाषा में जिगे भविद्या, माया तथा आहुत दशन फो भाषा भे वर्मरायिरण गे आप्नूत कटा गया ह 1 अविद्या, माया অথবা ফী के आयरण कया अपगम आत्मा के शुद्ध स्परूप या परसात्म-भाव की अभिव्यक्ति का हैवु है । दूगरे शब्दों में जीव अपने अपरिसीस प्रकार्य द्वारा बपने यथा रुप-परमात्म- भाव फो उदृषाटित, व्यदत या अधिगत कणे मे गम्यं हो जाता है। बहिरात्म- भाव से अन्तरात्सभाव की भौर गति करता हमा जिम दिन वह परमात्मभाव में लोन हो जाता है, नि.मम्देह उसके लिए यह एक स्वणिम दिनिया परम सौभाग्य फी वेता होती है । सूफी संतों मे आत्मा के परमात्मभाव अधियत करने के प्रेमास्मवः उपक्रम- तीग्रतम उत्कण्ठा फो आशिक और माशुफा को रुपक द्वारा व्याम्यात किया है । कबीर आई तियुणमार्गी सन्‍्तों से अपने को राम पी बहुरिया बताते हुए इसी आध्यात्मिक प्रेम को अपने ढंग मे प्रस्तुत क्रिया है । वारतव में भाग्त ही वह देश है, जहां जीवन के इस गहसतम वियय पर विविध रुप में चिन्तन की धाराएे प्रयाहित हैं। यहां की प्रभ नै केवले भौतिकः किया मासत उपलब्धि में ही जीवन की सार्थकता सही सानी । इतना ही नहीं, एग ओर के उद्वेय फो उसने दुब लता तक कहा । आत्मा कौ इस ऊर्ध्येगामिता के केन्द्र में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान चित्त फा है! भित्त की वृत्तियां ही मनुष्य को न जाने कहाँ से कहाँ भटका देती हैं ॥ इसलिए ऊध्य गमन वी यात्रा में चित्तवृत्तियों की उच्छूखलता को तियन्ध्रित करमा आवश्यक होता है, योग की भाषा में जिग्ने नित्तवृत्ति-निरोध कहा गया है 1 निरोध शब्द यहा विशेषतः एयाग्रता के अर्थ में है। विधायक और निरयेधक दोनो पक्ष इसमें समाविष्ट हैं । परिष्कार और परिमार्भत, सशोधन और विशोधन के माध्यम से मह निरोध की आन्वरिक चैतमामगी गति चरमोत्कर्ष श्राप्त करती है ! भारत का यह सौभाग्य है कि यहाँ की रत्वगर्भा वसुन्धरा ने विन्तकों, मती+ पियों और ऋापियों तथा आनियो के रुए में ऐसे-ऐसे मर-रत्त जगत को दिये, चिनके शरान, चिन्तन एवे अनुभूति कौ अप्रतिम आभा से मानव जाति ने अन्तर्जाएति के रूप में हुक अभिनव आलोक प्राप्त किया | सामप्टिक रूप में हम इस साटी परम्परा कौ योग या अध्यात्मन्योग के गाम से अभिहित कर सकते है । वारतव में योग का क्षेत्र সা १. योगश्चित्तवृत्तितिरोधः । +-पात्तेजल योगदूध १२




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