गीता प्रबंध प्रथम भाग | Gita Prabandh Part-i

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Gita Prabandh Part-i by श्री अरविन्द - Shri Arvind

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गीतासे हमारी आवश्यकता ओर माँग रूप देनेसे उसका गांभीय; सत्तत्त् और शक्तिमत्व ही सवद्धित होता है। खय गीतामें ही बारंबार उस व्यापक रूपका संकेत किया गया है जो इस प्रकार देशकाल्मयांदित भावना या संस्कार-विशेषकों दिया जा सकता श | उदाहरणा + ५८ यक्त ?! संबंधी आचीन भारतीय विधि और भावनाको गीताने देवताओं और मनुष्योंक्ा परस्पर आदान-प्रदान कहा है। यज्ञकी यह विधि ओर জাননা स्वयं भारतवर्षमें ही बहुत कालसे लुप्तप्राय हो गयी है ओर सर्वलाधारण मानव-मनको इसमें कुछ भी तथ्य नहीं प्रतीव होता । परंतु गीतामें यह यज्ञ शव्द इतना आङू- कारिक, सांकेतिक ओर सूक्ष्म तत््वका परिचायक है तथा देवताविषयक् भावना देशकाल्मर्यादा ओर किंबदंतीसे इतनी विनिर्मुक्त जोर सम्धमिं इतनी व्यापक ओर दाशनिक है कि हम इन यज्ञ ओर देवता दोनोंको, मनोविज्ञान ओर प्रकृतिके साधारण विधानके व्यावहारिक तथ्यके रूपमें सहज ही अहण कर सकते हैं ओर इन्हें, मनुष्यपशुपक्षीतियगादि प्राणियों परस्पर होनेवाले आदान-प्रदान, एक-दूसरेके हिताथे होनेवाले-- बलिदान ओर आत्सदानके विपयमें जो आधुनिक विचार हैं उनपर, ऐसे घटा सकते हैं कि इनके अर्थ ओर सी उदार ओर गंभीर हों, ये अधिक. सच्चे आध्यात्मिक स्वरूप ओर गेसीरतर अत्यधिक विस्तीर्ण सत्यके. प्रकाशसे प्रकाशित हों । इसी रकार शाखविधानोक्त कमे, चातुैण्य, विभिन्न वर्णाकी स्थितम तारतस्य, या अध्यात्म-विषयम श्ु्धो ओर स्के अनधिकार, ये सव बातें पहली नजरमें तो देशविशेष या कालविशेषसे ही संबंध रखनेवाली अतीत होती हैं ओर इनका यदि एक- मात्र शान्दिक अथ ही लिया जाय तो गीताकी शिक्षा उतने अन्मे अनुदार ही हो जाती है ओर उससे गीताके उपदेशका व्यापकत्वं मौर आध्यात्मिक गांभीय न्ट होता ओर फिर समस्त मनुष्य-जातिके लिये- ९,




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