जैनपद संग्रह भाग २ | Jainpadasangrah Volume-2

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Book Image : जैनपद  संग्रह भाग २  - Jainpadasangrah Volume-2

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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द्वितीयमाग | ९, हाने । अति० 1 १ ॥ शुध उपयोग कारननसें जो, रागकषाय द्‌ उद्याने ! सो चिद्युद्ध तसु एल इदा दिक, बिभव समाज सकर परमान ॥ अति० ॥ २॥ परकारन मोदादिकतें च्युत; दरसन ज्ञान चरन रस पाने | सो हे द्ध माव तसु फलत, पहचत परसानद्‌ ठिकाने ॥ अति संछे० |! ३ ॥ इनमे जुगल वधके कारन, परद्रव्यानित देयपरमाने । * मागचंद्‌ ` स्वसमय निज हित लखि, तामें रम रहिये भ्रम हाने ॥ अति० ॥ ४ ॥ १४ “उदच्मस्ेेन गृह व्याहन आशये, समदविजयके खाल ये । उग्रसेन ० ॥ टेक || অহাহল पशु आक्रंदून लूखिके, करना भाव उपाये ! जगत विभूति भूति सम तिके आधक विराग वदाय । उन्रसन० ॥ १॥ सुद्धा नगन धरि त्तदा विन, आत्मव्रह्यरुचि छाये ! उनलजर्यतगिरि दिखरोपरि चदि, छुचि थानकमें थाये ॥ उच्मसेन० ॥२।। पचसुष्टि कच द्च सुच रज, सिद्धनको शिर नाये | 'घचल ध्यान पावक ज्वाले, करम कट॑क जायें 1 उच्च० ॥ ३ ॥ वस्तु समस्त हस्तरेखावत, ज्ुगपत ही द्रसये । निरवरोष विध्वस्त कमंकर, शिवपुरकाज ` सिधायें 1 उम्रसेन० ॥ ४ ॥ अव्यायाध अग्राध बोध- मयतत्ञानंद खुहाये । जगभूषन दूषनविन स्वामी, भागचंद शन गये । उत्रसेन० ॥ ५॥




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