जैनपद संग्रह भाग २ | Jainpadasangrah Volume-2
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
1 MB
कुल पष्ठ :
58
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)द्वितीयमाग | ९,
हाने । अति० 1 १ ॥ शुध उपयोग कारननसें जो,
रागकषाय द् उद्याने ! सो चिद्युद्ध तसु एल इदा
दिक, बिभव समाज सकर परमान ॥ अति० ॥ २॥
परकारन मोदादिकतें च्युत; दरसन ज्ञान चरन रस
पाने | सो हे द्ध माव तसु फलत, पहचत परसानद्
ठिकाने ॥ अति संछे० |! ३ ॥ इनमे जुगल वधके कारन,
परद्रव्यानित देयपरमाने । * मागचंद् ` स्वसमय निज
हित लखि, तामें रम रहिये भ्रम हाने ॥ अति० ॥ ४ ॥
१४
“उदच्मस्ेेन गृह व्याहन आशये, समदविजयके खाल
ये । उग्रसेन ० ॥ टेक || অহাহল पशु आक्रंदून लूखिके,
करना भाव उपाये ! जगत विभूति भूति सम तिके
आधक विराग वदाय । उन्रसन० ॥ १॥ सुद्धा नगन
धरि त्तदा विन, आत्मव्रह्यरुचि छाये ! उनलजर्यतगिरि
दिखरोपरि चदि, छुचि थानकमें थाये ॥ उच्मसेन० ॥२।।
पचसुष्टि कच द्च सुच रज, सिद्धनको शिर नाये |
'घचल ध्यान पावक ज्वाले, करम कट॑क जायें
1 उच्च० ॥ ३ ॥ वस्तु समस्त हस्तरेखावत, ज्ुगपत ही
द्रसये । निरवरोष विध्वस्त कमंकर, शिवपुरकाज
` सिधायें 1 उम्रसेन० ॥ ४ ॥ अव्यायाध अग्राध बोध-
मयतत्ञानंद खुहाये । जगभूषन दूषनविन स्वामी,
भागचंद शन गये । उत्रसेन० ॥ ५॥
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