हिंदी काव्यालंकारसूत्र | Hindi Kavyalankarsutra

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Hindi Kavyalankarsutra by डॉ. नगेन्द्र - Dr.Nagendra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शब्द का प्रयोग न करते हुए थी वे दोनों के साहित्य को ही काव्य का मूल अंग मानते हैं । (९) दोष को वे काव्य के लिए असझ सानते दें : इसीलिए सोन्दय का समावेश करने के लिए दोष का बहिष्कार पहला प्रतिबन्ध है । (३१ गुण काव्य का नित्य धर्म दै--शर्थात्‌ उसकी स्थिति काव्य के लिए झनिवाय है । (४) अलझ्वार फाव्य का भनित्य धर्म दे--उसकी स्थिति वांछुनीय है; झनिवाय नहदीं । यह तो स्पष्ट दी दे कि वामन का लक्षण निर्दोष नदीं दे । लच्तण झ्तिव्याप्ति और भ्रव्याप्ति दोषों से मुक्त दोना चाबिये : उसकी शब्दावली सचंधा स्पष्ट किन्तु संतुलित दोनी 'चाहिये--उसमसें कोई शब्द झनावश्यक नहीं होना चादिए । इस दृष्टि से, पद्दल्षे तो वामन का श्रोर वामन के झनुकरण पर सस्मट का दोष के झभाव को लक्षण में स्थान देना अधिक संगत नहीं दे । दोष को स्थिति एक तो सापेक्षिक दे, दूसरे; दोष काव्य में बाधक तो हो सकता दे; परन्तु उसके अस्तित्व का सर्वथा निषेध नहीं कर सकता । काणत्व झ्रथवा क्‍्लीवत्व मनुष्य के व्यक्तित्व की हानि करता दे, सनुष्यता का निषेध नद्दीं करता । इसलिए दोषाभाव को कफाव्य-क्च्ण में स्थान देना झनावश्यक दी दै। इसके अतिरिक्त झलझार को चांछनीयता भी कंक्षण का झंग नहीं दो सकती । मनुष्य के लिए अलंकरण चांछनीय तो दो सकता दे; किन्तु वह मनुष्यता का झनिवायं गुण नद्दीं दो सकता । वास्तव में लक्षण के झन्तगंत चांछनीय तथा घेकड्पक के लिए स्थान दी नददीं दे । लक्षण में मूल, पाथेक्य- कारी विशेषता रदनी चाहिए : भावात्मक झथवा झमावात्मक सहायक शुों को सूची नददीं । इस दृष्टि से भामद्द फा कक्षण ''शब्द-अथ का साहित्य” कहीं श्रघिक तत्व-गत तथा मौलिक है । जद्दां शब्द दमारे झथे का झनिवाय साध्यम बन जाता है वहीं वाणी को सफलता दै । यही झमिव्यज्षनावाद का सूल सिद्धान्त दे--क्रोचे ने अत्यन्त प्रबल शब्दों में इसी का स्थापन और विवेचन किया है । झात्माभिव्यंजन का सिद्धान्त भी यही है। मौलिक और व्यापक इष्टि से झामदद का क्षंक्षण अत्यन्त शुद्ध और मान्य है: परन्तु इस पर अतिष्याप्ति का झारोप किया जा सकता दे; और परवर्ती झाचार्यों ने किया भी दै। झारोप यदद दे कि यद्द तो झभिव्यजना का लक्षण हुआ--काव्य का नहीं । शब्द और श्र्थ का सामंजस्य उक्ति की सफलता है--झमिव्यज्ञना (०)




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