भारत के स्त्री-रत्न (दूसरा भाग) | Bharat Ke Stri-Ratn (Dusra Bhaag)

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Bharat Ke Stri-Ratn (Dusra Bhaag) by शंकरलाल वर्मा - Shankarlal Verma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पमेशल्मा ् अङ्गकलत मे जाश्मोगे बह जज्ञल सारयवान होगा और यह अयोध्या तुम्हारे म रहने से भाग्यहीन बन जायगी । पुत्र | तुम सबको बड़े प्यारे हो; सबके पराणों के प्राण और जीकें को जिलानेवाले हों । ऐसे तुम खुद ही जब यह कह रहे हो कि 'मां ! में बन जाता हूं, तब मुझे घड़ा दुःख होता है; पर इसलिए झूठा स्नेह बढ़ाकर में तुम्हें गहने का आधश्रह नहीं करती 1 बेटा ! माता के सम्बन्ध को चलबान मानकर तुम सेरी खबर लेना मत भूलना ! देव पितर सच तुम्दहिं गुसाई | राखहिं नयन पलक की नाई ॥ अवधि झम्बु प्रिय परिजन मीना | तुम करुणाकर धरम-घुरीना' ॥ बेटा | पलकें जैस आँखों की स्ता करी है, वैतह देवता ओर पितृ तुम्हारी रक्षा करेगे | तुम दयालु और धुरन्धरः ही! इसलिए ऐसा उपाय करना कि सबके सामने ही तुम बापस आा मित्र । क्योंकि जैसे मलुलियाँ पानी के जिया नहीं रह सकतीं, उसी प्रकार बसवास की अषधि ख़तम होने पर प्रिय कुटुसबीनअन मर जायेंगे । पुत्र! में तुम्हें आशीषाद देती हैँ | प्रजा, कुदुम्बियों ओर शहर को छोड़कर भुख के साथ तुम चन जाओ 1) इस समय उनके हृदय मे असझ्य दारूण बेदना हो रही थी। एचन्द्रजी ने अनेक प्रकार सीठीन्मीटी बातें कहकर उन्हें सम» काया । इतने सें सीताजी बहां आ पहुँचीं और 'उल्होंने भी पति के साथ धन में जाने का विचार प्रकट किया | यह्ट देख कोशल्या का जी फिर भर आया। सीता उन्हें किदनी अधिक प्रिय है, बचपन से ही बहू कितने लाइनप्यार में पत्नी है, वह कितनी सुकु- पार है, इन सथ यातों को बताकर बह कहने लगीं---'रघुसाथ ! यह तीवा आज तुम्हरे साथ वन जाना चाहती है । इसे तुम




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