मूलाचार | Mulachar
श्रेणी : शिक्षा / Education
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
33 MB
कुल पष्ठ :
582
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
ज्ञानमती जी - Gyanmati Ji
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पं. कैलाशचंद्र शास्त्री - Pt. Kailashchandra Shastri
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ही, उससे पूर्वे से भी हो सकती है। इसके लिए स्वयं वसुनन्दि आचार्य ने लिखा है--
पर्याप्ति अधिकार में “वावीस सत्व तिण्णि य***” ये कुल कोटि की प्रतिपादक चार
गाथायें हैं। उनकी टीका में लिखते हैं--
“/एतानि गाथासूत्राणि पंचाचारे व्याख्यातानि अतो नेह पुनव्याख्यायते पुनरुवतत्वादिति ।
१६६-१६७-१६८-१६६ एतेपां संस्कृतच्छाया अपि तत एव ज्ञेया: ।”
इससे एक बात और स्पष्ट हो जातो है कि ग्रन्थकार एक बार ली गयी गाथाओं को
आवश्यकतानुसार उसी ग्रन्थ मे पुनः भी प्रयुक्त करते रहं हैँ ।
इसी पर्याप्ति अधिकार में देवियों की आयु के बारे में दो गाधाएँ आयी हैं । यथा--
पंचादी वेहि जुदा सत्तावीसा य पलल देवीणं।
तत्तो सत्तुत्तरिया जावद अरणप्पयं कप्पं ॥७६९॥
सौधम स्वगं में देवियों की उत्कृष्ट आयु ५ पल्य, ईशान मे ७ पल्य सानक्कुमार में
६, माहेद्ध में ११, ब्रह्म मे १३, ब्रह्मोत्तर में १५, लांतव में १७, कापिष्ठ में १९, शुक्र में २१,
महाशुक्र में २३, शतार में २५, सहस्नार में २७, आनत में ३४, प्राणत में ४१९, आरण में ४८
और अच्युत स्वगं में ५५ पल्य है।
दूसरा उपदेश ऐसा है--
». ণঘান दस सत्तधियं पणवीसं तीसमेव पंचधियं।
चत्तालं पणदालं पण्णामो पण्णपण्णामो ॥८०॥
सौधर्म, ईशान इन दो स्वर्गो में देवियों की उक्कृष्ट आयु ५ पल्य, सानत्कुमार-
माहेन्द्र में १७, बहा-ब्रह्मोत्तर में २५, लांतव-कापिष्ठ में ३५, शुक्र-महाशुक्र में ४०, एतार-
सहस्तार में ४५, आनत-प्राणतत में ५० और आरण-अच्युत में ५५ पल्य की है।
यहाँ पर टीका में आचाये वसुनन्दि कहते हैं--
“दवप्युपदेशो ग्राह्यौ सूत्रद्योपदेशात्। हयोमंध्य एकेन सत्येन शवितवब्यं, नात्र
संदेह मिथ्यात्वं, यदहृत्रणीत्तं तत्सत्यमिति संदेहाभावात् । उद् मस्वस्तु विवेकः कतु
मे णन््यतेऽतो मिय्यात्वभयादेव द्वयो ग्रहणमिति? 1
ये दोनों ही उपदेश ग्राह्य ह । क्योंकि सूत्र में दोनों कहे गए हैं ।
शंका--दोनों में एक ही सत्य होना चाहिए, अन्यथा संशय मिथ्यात्व हो जायेगा ?
समाधान--नहीं, यहाँ संशय मिथ्यात्व नहीं है क्योंकि जो अहत देव के द्वारा कहा
हुआ है वही सत्य है! इसमें संदेह नहीं है। हम लोग छद्मस्व हैं। हम लोगों के द्वारा यह
विवेक करता शक्य नहीं है कि “इन दोनों में से यह ही सत्य है” इसलिए मिथ्यात्व के भय से
दोनों को ही ग्रहण करनः चाहिए। अर्थात् यदि पहली गाथा के कथन को सत्य कह दिया और
था दूसरा सत्य 1 अथवा दूसरी गाथा को सत्य कह दिया और था पहला सत्य, तो हम मिश्या-
१. पर्याप्त्यधिकार |
साद्य उपोदधात / ६७
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