भाषा विज्ञानं और हिंदी | Bhasha Vigyan Aur Hindi

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Bhasha Vigyan Aur Hindi  by चन्द्रभान अग्रवाल - Chandrabhaan Agrawal

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about चन्द्रभान अग्रवाल - Chandrabhaan Agrawal

Add Infomation AboutChandrabhaan Agrawal

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
( ७ ). पहले कहा गया है कि बोल-चाल या बच्चों की भाषाओं के अध्ययन से भी इसकी पुष्टि होती है। भाषा के प्रारंभिक वाक्य शब्दात्मक रहे होगे । वाक्य-रचना का विकास बाद को हुआ तथा ग्याकरण के सूक्ष्म भेदों की स्थिति भी बाद की है। बच्चे प्रत्येक शब्द को व्यक्तिवाचक रूप में ही सीखते हैं, ठीक उसी प्रकार प्रारंभिक पुरुष भी घटना विशेष अथवा कार्य विशेष के लिये अस्तब्यस्त ध्वन्तियों का ही प्रयोग करते रहे होंगे जो कि उक्त कार्य-घटना के लिये शब्द-रूप में रूढ़ि हो गई होंगी । असभ्य जाति की भाषा भी सीमित भौर अविकसित होती है जिससे प्रारंभिक अवस्था का संकेत मिल सकता है । इसी प्रकार भाषा के इतिहास का मूल स्रोत मालूम करने स््रे भाषा के मूल रूप तक पहुंचा जा सकता है। भाषा समाज-सापेक्ष होती है। उसका विकास भावों के आदान- प्रदान के लिये ही हुआ । भाषा के विकास में यह भावना इतनी प्रबल हो गई है कि भाषा के अध्ययन की एक शाखा ही सामाजिक भाषा- सास्र (90121 11 पाऽ65} के नाम से अभिहित की गई है। भाषा पर समाज की छाप होती है। कोई एक व्यक्ति भाषाको उत्पन्न नहीं करता । यह अवश्य है कि भाषा को एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से ही सीखता है । बच्चा अपनी मां से भाषा सीखना प्रारंभ करता है ओर उत्तरोत्तर उसके सीखने का क्षेत्र विस्तृत होता जाता है । इस प्रकार भाष अपने पूवंजों से सीखी जाती है । वह्‌ एक परंपरा- गत अजित वस्तु है। कोई व्यक्ति पैतृक संपत्ति के रूप में उसका उत्तराधिकारी नहीं होता वरन्‌ उसे प्राप्त करने के लिए उसको प्रयत्वशील होना पड़ता है । भाषा का भौतिक रूप सभी अवस्थाओं और कालों में ग्रभीष्ट-सिद्धि के लिये समर्थ नहीं होता। मंकेतों के द्वारा भी भाव व्यक्त किये जाते




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now